२३ साल पहले की घटना है। सुश्रावक रतिभाई जीवनलाल के शासनराग की खूब अनुमोदना करता हूं। वढ़वाण में मेरा चातुर्मास था। एक दिन सुबह उजाला होने के बाद में पडिलेहण कर रहा था। वढवाण का उपाश्रय अंधियारा था। अंदर अंधेरो होने के कारण प्रकाश के लिए पडिलेहण उपाश्रय के द्वार के पास सीडियो पर करता था। इतनेमें वे वंदन करने आए। पडिलेहण करते मुझे देखकर पूछा कि कोन हो? यहां क्या कर रहे हो? मैं उनको पहचानता नहीं था। बादमें सुना कि वे बहुत धर्मीष्ठ श्रावक है। मुझे लगा कि होगा कोई निव्रत श्रावक! पडीलेहण करते समय बोलना नहीं चाहिए।थोड़ी देर के बाद आकर उन्होंने कहा कि म.सा.! ऐसा आचारप्रेम बहुत जीवो को लाभ करता है। मेरा अनुभव आपसे कहता हूं। एक बार स्नेही के साथ में जा रहा था। रास्ते में जाते म.सा. को देखकर उस स्नेही ने वंदन किया। म. सा. के जाने के बाद मैंने उनसे पूछा, “तुम कभी हाथ भी नहीं जोड़ते और आज वंदन भी किया?” तब उनका दिया हुआ जवाब मैंने दिल में घर कर गया है। जवाब यह था: रतिभाई ! तुमने देखा नहीं कि नीचे देखकर सुसाधु के समान विहार करते यह महात्मा चलते थे। उनकी विशुद्ध संयमचर्या देखकर मेरे दिल में अत्यंत आदर पैदा हुआ था। इसलिए वंदन किया। यह सुनकर रतिभाई को लगा की आचारो की शिथिलता से साधु से दूर भागने वाले ऐसे धर्मप्रेमी आत्माओं को आचारदृढ़ साधुओं को देखकर कितना अधिक लाभ होता होगा? उनकी बात सुनकर मुझे पछतावा हुआ की में इस शासनरागी श्रावक को निकम्मा समझा। इस रतिभाई के ह्रदय में शासन इतना बस गया कि ज्यादा से ज्यादा जीव शासनरागी बने ऐसा चाहते थे। छोटा और अज्ञानी मेरी छोटीसी क्रिया में थोड़ी विधि देखी तो उन्हें खूब आनंद मिला। हे कल्याणकामि भव्यों! तुम भी कहीं भी जिनाज्ञा पालन आदि देखो तो अनुमोदना का लाभ लेना।