एक आत्मा सिद्धपद प्राप्त करती है, तब अव्यवहार राशि में से एक जीव का उद्धार होता है। इस नियमानुसार अपने ऊपर भी सिद्ध भगवंत के उपकार का ऋण, उपकार का भार रहा है। मुक्त अवस्था यानी सिद्ध पद, यह परोपकारमय अवस्था है ऐसा एक अपेक्षा से कह सकते हैं। क्योंकि सिद्ध भगवन्त पूर्ण और कृतकृत्य होते हैं। वे आत्मा के सच्चिदानंद सहज स्वरूप में ही सदा लयलीन होते हैं। आठ प्रकार के कर्म, 18 प्रकार के दोष और समस्त इच्छाओं से रहित होते हैं। इसीलिए ध्येय रूप में भव्य आत्माओं के लिए उपकारी बनते ही हैं और किसी भी जीव की पीड़ा, हिंसा में अंश मात्र भी स्वयं निमित्त नहीं बनते। इसलिए सिद्धावस्था यह जीव की परम आनंदमय और परम परोपकारमय अवस्था है, वे अपने अस्तित्व मात्र से महान परोपकार कर रहे हैं।
देही अवस्था में जब तक मन, वचन, काया के सूक्ष्म स्पंदन चालू रहते हैं, तब तक यानी की तेरहवें सयोगी गुणस्थानक तक भी साता वेदनीय कर्म का बंध चालू रहता है, उसका कारण योग के सूक्ष्म स्पंदनो से होता शुभास्त्रव है।सिद्धावस्था योगातीत और संपूर्ण कर्म रहित अवस्था है। अतः संपूर्ण अहिंसक भाव वहाँ होता है। इस अपेक्षा से सिद्ध पद की केवल परोपकारमयता सिद्ध हो सकती है।
पंच परमेष्ठियों में अरिहंत परमात्मा को जो प्राधान्य दिया है वह भी परोपकार गुण के प्रकर्ष की ही अपेक्षा से ही और उनका सर्वोत्कृष्ट लोकोत्तर उपकार यही है कि सिद्ध पद की वास्तविक पहचान वे करवाते हैं।
सिद्ध अवस्था यानी मुक्ति। यही अंत में बिना की अविनाशी अवस्था है। अरिहंत, आचार्य, उपाध्याय, या साधु अवस्था सादी शांत है। परंतु सिद्ध पद सादी अनंत है, इसीलिए मानव जीवन का परम और चरम लक्ष्य सिद्ध पद है।