अग्नि से सुलग कर मर रहे नाग को पार्श्वकुमार ने कृपाद्रष्टि से निहारा और सेवक के मुख से नवकारमंत्र का श्रवण करवाया इससे वह मृत्यु पाकर धरणेंद्र बन गया | इस इतिहास को हम सब जानते है |
कमठ की अग्नि में जल रहे इस नाग के पिछले जन्म कौन से थे ये अब तक पता नही चला था | शायद यह जानने का प्रयत्न भी नही हुआ था | आज भी वह संशोधन का चिंतन बना है परन्तु इस संशोधन का अनुसंधान शायद यहाँ पेश किये गये प्रसंग में मिल सकता है |
सहस्त्रब्दिओ पहले की यह घटना है | अपने इस भरतक्षेत्र में रत्नपुरी नाम की नगरी थी | रत्नशेखर नामक राजा वंहा राज्य करता था | उस की पत्नी का नाम रत्नवती | पूरी सुशील तथा पतिव्रता , किन्नरीओ को भी पराजित होना पडे ऐसी रूपवती फिर भी जिनेश्वर के धर्म की परम सेविका |
रत्नशेखर राजा भी परम धर्मात्मा और न्यायप्रीय था | उतनाही सात्विक दयावंत भी था | एक दिन सुबह – सुबह में राजसेवक ने राजा को बधाई दी की , महाराजा अपने बगीचे में कोई महाज्ञानी जैनाचार्य पधारे है | तत्त्वरूचि उन का नाम है | यह सुन के राजा का रोम रोम नाच उठा | सेवक को बहुत प्रितिदान करके संतुष्ट किया | उसके बाद पट्टराणी तथा खुद के पुरे परिवार के साथ सामैया लेकर बगीचे में पहुचे | गुरु की देशना सुनी |
देशना के बीच में राजा ने गुरु से पुछा, भगवंत | थोड़े समय पहले एक पोपट तथा उसकी स्त्री (मेना) मुझे देख कर बहुत रोमांचित हो रहे थे | उन की आखो में हर्षाश्रु आ चड़े थे | तो भी वे तत्क्षण मूर्छा पाकर मृत्यु हुए | मेने उन को नवकार तो सुनाया परन्तु मुझे समज में नही आ रहा है की ऐसे कैसे बना ? वे कौन थे ? मुझे देख कर उन्हें अत्यधिक आनन्द केसे हुआ ?
मृत्यु पाकर कहा गये ?
इस तरह राजा खुद के संशय का वर्णन करते जा रहा था उसी समय अचानक उल्कापात जैसा आवाज होने लगा | एकाएक आकाश में से कोई सुभट राजा के सामने आ कर खड़ा हो गया | उसके एक हाथ में खुली तलवार थी तथा दुसरे हाथ में खुद की सुंदर पत्नी |
राजा को संकेत करके वह संभ्रमपूर्वक बोला: राजन ! मेरे पीछे मेरा एक शत्रु पडा है | हम विद्याधर है | वह आकाश में ही खड़ा है | उसे मार हटा कर मै फिर से लोटते आ रहा हूँ | तब तक आप इस मेरी सती स्त्री का रक्षण करो | आप व्रतधारी है ,
परनारी सहोदर है इससे आपके प्रति मुझे विश्वास जागा है | आपके सीवाय इस सुन्दर स्त्री को धरती पर किसी को सोप सकू ऐसा नही लगता | दयालु रत्नशेखर ने इस सुभट को अभयवचन दिया | तेरी स्त्री का कोई बाल भी नही काट सकगा | उसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी लेता हूँ | जा , शत्रु को हराकर वापस जल्दी लौट आ |
सुभट आकाशमार्ग से जैसा आया था उसी तरह अदृश्य हो गया | पूरी ४८ मिनट बित गये अब तक वो फिर से आया नही | उसकी पत्नी भानुमती थोड़ी विहंल बनी | वहा तो मूल में से छेदा हुआ तथा शारीर से अलग हो चूका एक हाथ आकाश में से निचे गिरा | राजा के सामने ही , भानुमती ने वो हाथ देखा |
वह फुट फुट के रोने लगी | यह तो मेरे पति का ही हाथ है | क्या हुआ होगा उनका ? | बहन | किसी दुसरे पुरुष का हाथ भी हो सकता है | तेरे पति का ही यह हाथ है उसका क्या भरोसा ? राजा ने आश्वासन देते हुए कहा |
नही …नही….राजन ! यह मेरे स्वामी का ही हाथ है | देखो , हाथ के उपर काजल से मिश्रित आंसुओ के दाग दिख रहे है | वे छोड़ के गये उस के पहले उन के कन्धे पर सर रख कर रो रही थी | इससे मेरी आखो के काजल के साथ जो आंसू उनके हाथ पर पड़े उसके ये निशान है |
सब स्तब्ध बन गये |
वह तो दूसरा हाथ आकाश में से गिरता हुआ राज के सामने आ धमका | भानुमती के विलाप की झडप बाद गई रोते रोते वह बोली , यह भी मेरे स्वामी का ही हाथ है | देखो हाथ में लाल रंग की रेखाऐ दिख रही है | युध्दप्रयाण के पहले मेने उन्हें हिन्ग्लोक के रस से विलेपन करके वीरवलय पहनाया था उसके ही ये निशान है |
श्रोताओ का आश्चर्य बाढ रहा था |
तब तक कटा हुआ मस्तक तथा धड भी नीचे गिर पड़ा | भानुमती ह्रदय फट जाये इतना आक्रन्द करने लगी | किसी भी तरह से वह आश्वासन नही पाती थी |
वह खुद तो रोयी , राजा को भी रुलाया | अरे , हर किसी को रुलाया |
रोते –रोते वह कहने लगी , स्वामी बिना का जीवन व्यर्थ है | मै मेरे पति के पीछे सती बनूँगी |अग्निस्नान करूंगी | राजा ने बहुत समझाया | रानियों ने भी बहुत रोका परन्तु वो नही मानी | खुद के पति के अंग को अपनी गोद में लेकर अग्नि में कुद पड़ी |
सब तरह सन्नाटा फेल गया |
राजा तथा प्रजा व्याकुल बगीचे में इक तरफ बेठे रहे |
वहाँ मान न सके ऐसा चमत्कार हुआ | वह सुभट अपने शत्रु को हराकर हर्षनाद करता गगनमंडल पर से निचे अवतरित हुआ | राजा को प्रदम किया तथा बोला :राजन ! तुम ने मेरी स्त्री का रक्षण किया है इससे मेरे महाउपकारी हो | आपके उपकार का आप कहो वह बदला दूँगा | अब , मेरी स्त्री वापस दो | राजा सुनते ही स्तब्ध बन गया , मनो की पेर तले धरती ही सरक गई | राजाने हिम्मत से सारा वृत्तान्त सुभट को बताया और पूरी सभा को साक्षी के रूप में पेश की |
इस समय सुभट की दू:ख की सीमा नही रही | उसने रोते रोते कहा ,अगर तुम सब कह रहे हो वैसा ही है तो मै भी अभी अग्निप्रवेश करूंगा | नारी बिना जीवन संसारी के लिए बहुत मुश्किल है |
अग्निप्रवेश का नाम सुन कर राजा को कंपकंपी छुट गई | मेरे निमित्त से इन दो निर्दोष जिंदगियो का क्रूर अंत ! नही,नही मै वैसा नही होने दूंगा | राजा ने सुभट को बहुत भावुकता से कहा : वत्स , आत्महत्या मत कर ! तू माँगे वह तुझे दूँगा |
तो तुम्हारे एक पोषध का फल मुझे दे दो | सुभट ने अचानक पासा पलटा | यह किस तरह संभव बन सकता है ? पोषध कोइ लेने देने की चीज है ? राजा ने समझाया मगर सुभट मानने को तैयार ही नही हुआ | राजा ने खुद का वचन पूरा करने के लिए खुद का सर्वस्व दाँव पे लगा दिया | जा , मेरी १०० कन्याए तथा संपूर्ण राज्य तुझे देता हूँ परन्तु मुझे माफ़ी बक्ष दे |
राजा के वचन का स्पष्ट इंकार करते हुए सुभट अपने शारीर पर आग लगाकर जलकर मर गया |
राजा के अफ़सोस का अंत न रहा | क्या हो रहा है ये ही समज में नही आ रहा था | वह फिर से उसी बगीचे में रहे हुए तत्त्वरुचि आचार्य के पास पहुचा | सभी ने राजा का अनुसरण किया |
राजा गुरुदेव को कुछ पूछे उसके पहले देवदुन्दुभी बज उठी | साक्षात् धरणेंद्र तथा पद्मावती उपस्थित हुए | गुरु देव को वंदन करते हुए राजा को आशीर्वाद देते हुए बोले : पुत्र ! तू हमेशा के लिए जयवंत रहना | चिरायु बनना | तेरी धर्म निष्टा से हम अतिशय आनंद का अनुभव कर रहे है |
सभी स्थिर नयनो से उन्हें देखते रहे | सब के मन में उथलपुथल हो रही थी | दिल्ली कहा दूर थी ? राजा ने तत्वरुची आचार्य को पूछा , भगवंत ! यह महाऋद्धिशाली देव कोन है ? वे कैसे मुझे आशीर्वाद दे रहे है ?
राजन ! ये तो तेरे इस भव के माता -पिता ? तेरे प्रति इतने स्नेह के कारण वे यहाँ आये है |
हें ? मेरे इसी भव के माता -पिता ? उनका तो बहुत सालो पहले ही स्वर्गवास हो चूका है |
ऐसा किस तरह हो सकता है ?
राजा आश्चर्य चकित होगया |
राजन ! तेरे पिता पुरन्दर राजवी और माता रानी यहाँ मृत्यु को प्राप्त हुए | उसके बाद संसार में कुछ भवभ्रमण किया | इस भव में सम्यक्त्व को मिलीन किया , जिससे उनका ज्यादातर भ्रमण दुर्गतियो में हुआ |
भगवंत, कृपा करो ! मेरे माता – पिता ने जीवन में धर्मप्राप्ती किस तरह से की और उसके बाद उनका धर्म कैसे मलिन बना यह फरमाइयें !
राजा ने विनंती की |
तेरे पिता पुरन्दर राजा ने खुद की पटरानी सुन्दरी के साथ एक बार एक गुरुभगवंत का प्रवेश महोत्सव मनाया | उनका प्रवचन सुना | प्रवचन सुनते हुए उन दोनों के दिल में बोधिबीज का बीजारोपण हुआ | उन्होंने गुरु के पास सम्यक्त्व अंगीकार किया | बार व्रतो को भीं स्वीकार | उल्लासपूर्वक उनका परिपालन करते रहे |
वे हर तरह से सुखी थे फिर भी वह एक बात का दू:ख उनके ह्रदय में हमेशा पीड़ा पहुचाता रहता है | उन्हें पुत्र प्राप्ति न होने का दू:ख था | वे पुत्र की ईच्छा
से बहुत उदास बनते गये | राज्य के एक पुरोहित ने उन्हें पुत्र प्राप्त के लिए मिथ्यात्व का सेवन करने की प्रेरणा की | पुरोहित ने दावा किया की , छ: महीनो तक हमारे शास्त्रों (मिथ्या) के अनुशार विधि का सेवन करोगे तो जरूर पुत्र का चेहरा देखने को मिलेगा |
पुत्र लालसा से व्याकुल बने हुए पुरन्दर तथा सुन्दरी विवेकभ्रष्ट बन गये | सम्यग तथा मिथ्या का भेद समझाते थे तो भी उसे मिटा देने के लिए तैयार हो गये | उन्होंने छ: महीने तक मिथ्या शास्त्रो की विधि का आचरण किया फिर भी संतानसुख न मिला तो न ही मिला |
सुख तो नही मिला, धर्म भी न रहा | जैसे नीर तथा तीर दोनों से भ्रष्ट हो गये |
एक बार एक जैन मुनि उन के भवन में गोचरी वहोरने के लिए पधारे |
उदास राजा तथा उसकी रानी ने गोचरी साथ ही पुछ बैठे , गुरुदेव | हमे संतानप्राप्ति होगी या नही |
वह तुम्हारे भाग्य के अधीन है परन्तु तुम यह मिथ्यात्व का आचरण सब से पहले छोड़ दो ! तुम यहं क्या कर रहे हो ? अमृतरस को गिरा के क्षार को पी रहे हो |अगर समयक्त्व को प्राप्त किया है तो उसमे दृढ बनो | पुरन्दर तथा सुन्दरी खुद के इस अकार्य से रुक गये | गुरुदेव की हित शिक्षा का उन के मन पर भरी असर हुआ | कुछ समय पश्चात उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई | उनका पुत्र यानि तू रत्नशेखर !
रत्नशेखर का शरीर तो जैसे स्तंभवत स्थिर हो गया | वह तल्लीनता से सुन रहा था |
उसके बाद तेरे माता पिता की मृत्यु हुई | मिथ्यात्व का सेवन करते करते सम्यक्त्व को मलिन किया ,इस पाप की आलोचना भी नही की इससे वे दोनों समाधि भी नही पा सके | मृत्यु पाकर तिर्यंच योनी में उत्पन्न हुए | वह भी पति पत्नी बने | बकरा तथा बकरी | उसके बाद हंस , सूअर,बैल तथा हिरन के जन्मो का सफर किया | सर्वत्र पति पत्नी के संबंध में जुड़े |
अंत में , वे पोपट युगल के रूप में पैदा हुए |
तेरे हाथ पर जो पोपट युगल बेठा था , वह दूसरा कोई नही . तेरे ही माता पिता |
राजा का मन आश्चर्यचकित बन गया |
वहाँ से मृत्यु पाकर वे पुरन्दर तथा सुन्दरी के जीव भवनपति निकाय में धरणेंद्र
तथा पध्मावती के रूप में उत्पन्न हुए है |
तेरे प्रति पिछले जन्म के स्नेह के कारण वे यहाँ आये है | उन्हें सबसे प्रथम तेरी धर्मनिष्ठां की परीक्षा की | उसमे तू तो उतीर्ण हो गया इससे खुश होकर आशीर्वाद दिया |
वह सुभट तथा उस की पत्नी भानुमती की जो घटना हुई थी वे देव मय थी | सुभट बनकर धरणेद्र आये थे तथा पद्मावती ने भानुमती का रूप लिया था |
तत्वरुची सूरी रुक गये |
खुद का पिछला जन्म सुनकर धरणेद्र तथा पद्मावती भी धन्यता अनुभव करने लगे |
रत्नशेखर राजा तथा समस्त प्रजाजन के ह्रदय में देवगुरु के प्रति श्रध्दा बढने लगी |
(यह पर यह संभावना है की पोपट युगल का भव करने के बाद पुरन्दर राजा ने नाग का जन्म प्राप्त कीया हो | इस जन्म में कमठ के पंचाग्नि ताप में उसे सुलगना पड़ा हो तथा उस अवस्था में पार्श्वकुमार ने जो प्रतिबोध दिया वह स्वीकार किया हो | उस के बाद धरणेद्र के रूप में उत्पन्न हुए हो | सुन्दरी रानी बीच में अन्य तिर्यच का जन्म करके पद्मावती का स्थान पाई हो |
अगर असा नही है तो यहाँ जो धरणेंद्र पध्मावती के पूर्व जन्म का विवेचन किया है वः वर्तमान धरणेद्र पद्मावती का नही परन्तु उनके पहले के किसी का है ऐसा मनलेना चाहिए | तत्वं तू केवलिगम्यम् |)