पुण्य पुण्यानुबन्धी बना रहे यानी कि पापनाशक और मोक्षसाधक बना रहे, इस हेतु जीवन में कृतज्ञता और परोपकार गुण को पाना अत्यंत जरूरी है।
जीव की पात्रता का और धर्म का अधिकारी बनने का मुख्य लक्षण कृतज्ञता है। ‘नमुत्थुणं’ सूत्र में अरिहंत परमात्मा की “पुरिसुत्तमाणं लोगुत्तमाणं”आदि जिन पदों के द्वारा स्तवना की गई है, उसमें उनका निरूपचरित लोकोत्तर परोपकार गुण का प्रकर्ष ही कारणभूत है। सिद्ध परमात्मा सभी कर्म से मुक्त और सर्व-गुणसंपन्न होने पर भी, श्री नवकार मंत्र में और श्री सिद्धचक्र यंत्र में अरिहंत पद को प्रधानता दी गई है वह उनके सर्वोत्कृष्ट और सक्रिय लोकोत्तर परोपकार गुण का ही आभारी है।
दुनिया में जितने भी उच्च स्थान या पद है, वे लोकोत्तर परोपकारी पुरुषों को ही प्राप्त होते हैं। तीर्थंकर पद की प्राप्ति भी ‘सवी जीव करूं शासनरसी’ की परोपकारमय लोकोत्तर भावना का ही फल है और उसका कार्य भी परोपकार ही है। केवलज्ञान की प्राप्ति होने के साथ ही तीर्थंकर परमात्मा तीर्थ की स्थापना करके भव्य जीवो को शाश्वत सुख शांति का सच्चा मार्ग बताते हैं और यही उनका लोकोत्तर उपकार है। तीर्थ यह साधना है, तत्त्वप्राप्ति यह साध्य है। तीर्थ की सेवा-उपासना करने से ही तत्त्व की प्राप्ति हो सकती है। तीर्थ कि आराधना बिना तत्त्व नहीं मिल सकता।
किसी भी कार्य की सिद्धि के लिए निश्चित लक्ष्य और तद्नुरूप पुरुषार्थ दोनों जरूरी है। प्रस्तुत में स्वोपकार यानी शुभ भाव, चित्त प्रसन्नता और आत्मिक गुणों की प्राप्ति यह साध्य है और परोपकार यानी पर-पीड़ा का परिहार, पर-प्राणों की रक्षा और पापरहित क्रिया रूप दानादी की प्रवृत्ति यह उसका साधन है।
आगम की परिभाषा में कहे तो स्वोपकार यह निश्चय स्वरूप है और परोपकार यह व्यवहार स्वरूप है। पुरुषार्थ और प्रव्रत्ति हमेशा साधन में ही हो सकती है। साध्य तो पुरुषार्थ का फल है। तृप्ति जिस प्रकार भोजन का फल है। उसकी प्राप्ति स्वयं भोजन की प्रवृत्ति करने से यानी कौर लेना, चबाना वगैरह क्रिया से होती है। परंतु प्रतीक्षा करने मात्र से या उसके ज्ञान करने मात्र से तृप्ति नहीं होती! इस प्रकार स्वोपकार रूप जो ‘साध्य’ है वह परोपकार की प्रवृत्ति करने से ही मिल सकता है।