आज कल अहिंसा की बात कई लोग कर रहे है, जो कि एक सराहनीय बात है, किन्तु क्या आप जानते है कि जिस समय हम अहिंसा की बात कर रहे होते है, उस समय भी हमारे मुँह में पवन और लार के संयोग से करोड़ो जीवों की उत्पत्ति और फिर उनका नाश होता रहता है।
इसीलिये मौन को सभी धर्मों में एक तरह का तप कहा गया है।
जैन धर्म में अहिंसा की बहुत सूक्ष्म व्याख्या की गयी है। हम जो साँस लेते हैं तो उस समय हवा में मौजूद करोड़ो छोटे-छोटे जीव हवा के साथ हमारे शरीर के अन्दर चले जाते है। ये इतने नाजुक होते हैं कि शरीर के अन्दर की थोड़ी सी गर्मी पाकर ही मर जाते है। हमारे शरीर के अन्दर भी करोड़ो छोटे-छोटे जीव रहते है और पोषण पाते है और मरते है ।
पुनः अगर हम विचार करें तो पाते है कि आपको गेहूं के कुछ दानों में अगर घुन दिखता है तो यह मान लेना चाहिये कि अधिकांश दानों में घुन के बीजारोपण की सम्भावना हो सकती है। ऊपर से वो भले ही साफ दिखे, पर वो जीवों सहित ही हो सकता है और उसे पिसवाने और खाने में कितनी हिंसा होती है, यह एक अलग विषय है।
पुनः जिस चांवल को हम इतनी रुचि से खा रहे है, उसका एक-एक दाना उगाने में किसान ने अनन्त स्थूल एवं सूक्ष्म जीवों की हिंसा की है। क्या खाने वाले को उसका कुछ दोष नहीं लगेगा?
हम चलते है तो भी पता नहीं कितने सूक्ष्म और स्थूल जीव मरते होंगे। यह बात सही है कि हम अपनी कमजोरी वश चल रहे है, घूम रहे है, खा रहे है, साँस ले रहे है, परन्तु ऐसा करते हुए क्या हमको इस संसार को धारण करने का सतत् दुख है? अगर ऐसा नहीं है तो हम सच्चे अहिंसक कहलाने के हकदार नहीं है, क्योकि हमारे निमित्त से, हमारे इस शरीर को धारण करने के कारण ही प्रति समय अनन्तानन्त जीवात्माओं की हिंसा हो रही है और इसका खेद, दुःख, प्रायश्चित भाव हमें भी होना चाहिये और ऐसी भीषण हिंसा को भविष्य में टालने की इच्छा,
आकांक्षा भी होना चाहिये।
कदाचित कोई कहे कि हम थोड़ी हिंसा कर रहे है और दुसरे लोग बहुत हिंसा कर रहे है, सो यह तो ऐसा ही हुआ कि कबूतर सोचे कि आँख बंद करने से मैं बिल्ली को नहीं देख रहा हूँ। अतः वो भी मुझे नहीं देख रही होगी, तो वह मात्र अपनी नासमझी से दुर्गति को ही प्राप्त होती है।
बहुत गम्भीर बात है भाई। सर्वप्रथम तो आप को विचार करना चाहिये कि क्या आपको इस जन्म को धारण करने का दुःख है अथवा नहीं, क्योकि आपके प्रत्येक कार्य जैसे चलना-फिरना, खाना-पीना, सोना-जागना, परिवार, धन सम्पत्ति से राग करना, अनिष्ट पदार्थों से द्वेष करना आदि सभी कार्यों में प्रति समय आप के निमित्त से अनन्त सूक्ष्म जीवों की हिंसा हो रही है।
ये जीव इतने सूक्ष्म होते हैं कि दिखते भी नहीं है जैसे कि हवा-पानी के जीव । आप चाह कर भी उनकी पूरी तरह रक्षा नहीं कर सकते हो, फिर भी आप कुछ बड़े जीवों को बचा कर अपने आप को हिंसा रहित मानकर प्रमुदित होते हो, तो यह अभिमान आप के लिये घातक है,
क्योकि जब तक आप भव-धारण कर रहे हो, तब तक इसके निमित्त से हिंसा होनी ही है।
अतः प्रथम तो आप को इस शरीर को धारण करने का दुःख होना चाहिये जबकि आप इस शरीर से अत्यन्त प्रीतिभाव रखते हो। यह तो घोर विपरीतता ही हुई।
उपरोक्त चर्चा मात्र स्थूल हिंसा की ही है। इससे अनन्त गुना ज्यादा जो हिंसा प्रति समय आप कर रहे हो, वह भाव हिंसा है। प्रति समय आप अपने परम आत्मा यानि कि परमात्मा का विस्मरण कर रहे हो और इस तरह जो आत्मा को बांध रहे हैं, ऐसे कर्मों का बंध कर रहे हो। इससे आत्मा के अनन्त गुणों का, उसकी अनन्त शक्तियों का प्रति समय घात हो रहा है।
इस घात को करने वाला कौन है?
आप स्वयं जो स्वयं से अपरिचय के मिथ्यात्व (अज्ञान) रूपी मोहपाश में अपने स्वयं के आत्मा को जकड़कर उसका प्रति समय घात कर रहे हो। इस अन्तरंग हिंसा को कम करने से ही बाह्य हिंसा अपने आप कम होती जावेगी । अंतरंग की पूर्ण शुद्धि के साथ ही आप के द्वारा की जाने वाली समस्त बाह्य हिंसा भी खत्म हो जावेगी और तभी आप सच्चे अहिंसक कहलाओगे। शीघ्र ही फिर निर्वाण-लक्ष्मी आपका वरण कर आपको त्रिलोकपति बनाकर
अनन्त काल तक सुख देती रहेगी।