संसार में दो मुख्य द्रव्य हैं – जीव और पुद्गल |
जीव अनंत हैं, पुद्गल अनंतानंत हैं | अनादि काल से जीव के साथ द्रव्यकर्म का संयोग पाया जाता है और उस द्रव्यकर्म के उदय से आत्मा के साथ शरीर का और उससे सम्बंधित अन्य चेतन व् अचेतन पदार्थों का सम्बन्ध होता है| यह जीव ( मैं ) स्वयं को एक अमूर्तिक चैतन्य तत्व न पहचान कर अपने को शरीर व् पर पदार्थ रूप मान लेता है | आत्मा तो एक त्रैकालिक नित्य और ध्रुव द्रव्य है, परन्तु शरीर के साथ रोग, जनम, ज़रा, मरण, भूख-प्यास , सर्दी-गर्मी आदि की अनेक समस्यांए हैं, और उन भूख-प्यास आदि के शमन के लिए यह जीव अनेक इच्छाएं उठाता है | उन इच्छायों की पूर्ति में जो कुछ भी सहकारी होता है उसमें यह राग और जो कुछ प्रतिकूल पड़ता है उसमें द्वेष कर लेता है | अतः राग-द्वेष आदि अनेक विकारी भाव आत्मा में पाये जाते हैं | इस प्रकार अनादि काल से ही जीव के साथ द्रव्यकर्म का, उस द्रव्यकर्म के उदय के कारण राग-द्वेष आदि भावकर्म व् शरीरादि नोकर्म का और शरीर से सम्बंधित अन्य चेतन व् अचेतन पदार्थों का संयोग पाया जाता है | बाहर में चेतन-अचेतन पदार्थों का संयोग जीव के अपने पाप-पुण्य के उदय के अनुसार शुभ-अशुभ होता है, शरीर की क्रिया भी शुभ व् अशुभ होती है और अंतरंग में भाव भी शुभ व् अशुभ दोनों तरह के होते हैं | यह सारा काम द्रव्यकर्म के उदय का है, यह सब कर्मधारा है, इसमें चेतना का अपना कुछ भी नहीं है |
चेतन-तत्व ज्ञान,दर्शन,सुख,वीर्य,आदि अनंत गुणों का पिण्ड है | ज्ञान गुण इनमें मुख्य है क्योंकि ज्ञान स्व-पर प्रकाशक है | अतः चेतन मात्र ज्ञाता है और उसका काम जानने-देखने का है | प्रत्येक व्यक्ति में यह ज्ञानधारा चल रही है, परन्तु ज्ञान स्वयं को पहचान नहीं रहा है, किसी गहन निद्रा में मूर्छित है, और गहला होकर कर्मधारा में ही अपनापन मान रहा
है
परन्तु कर्मधारा में अर्थात शुभ-अशुभ आदि विभावों और शरीर में अपनापना मानते हुए भी ज्ञान रूप चैतन्य कभी भी राग-द्वेष रूप या शरीर रूप नहीं होता, सदैव चैतन्य ही बना रहता है | मैं चेतन ज्ञान-दर्शन मई हूँ, था और रहूँगा |
विचारना ……………….