बाह्य औदारिक शरीर समान होने पर भी अंदर के मानस शरीर और तेजस कार्मण शरीर सभी के भिन्न-भिन्न होते हैं ।
मानस शरीर बोधात्मक और कार्मण शरीर वासनात्मक होता है ।
वासना के भेद से बौध में भेद भिन्नता भी होती है । इसलिए समान आकृति वाले मनुष्य के गुण से और रुचि से भिन्न होते हैं। ऐसी समझ जिसके पास हो वह स्वाश्रय और अभेद का अधिकारी हो सकता है । उसके साधन तत्वज्ञान , वासनाक्षय और मनोनाश है । उसके लिए निवृत्ति मार्ग आवश्यक है । प्रवृत्ति मार्ग में तत्व ज्ञान प्राप्त हो सकता है परंतु वासनाक्षय और मनोनाश दुष्कर है । उसके लिए संगतिकरण का महायज्ञ बताया है । विद्या और मंत्र उसमें सहायक बनते हैं ।
संगति करण यानी समान मार्ग में गमन ।
अनेक जीवो का एक ही मार्ग पर चलना सर्व सामान्य के लिए हितकारी संविधान है ।
मंत्र देवता पाप नाश के लिए समर्थ होते हैं । मंत्र जाप द्वारा प्राण बल और मनोबल बढ़ता है ।
आत्मज्ञान रूप ब्रम्हज्ञान न हो तो प्राण बल और मनोबल बढ़ने से , अहंकार की भी वृद्धि होती है । इसमें अहम भाव का शुद्धिकरण ब्रम्हज्ञान से होता है ।
नवकार मंत्र की आराधना आत्मद्रष्टि रूपी ब्रम्हज्ञान देकर आत्मा को ऊंचे चढ़ाती है ।
विश्वात्मा यही स्वात्मा है । ऐसा स्वानुभव करना वह सभी उपदेशों का सार है ।
जहां काम वहां राम नहीं । जहां राम वहां नहीं काम ।।
यदि आत्मा रूपी महाराजा से मुलाकात करनी हो तो कामना वासना और इच्छा वगैरह जुने पुराने फटे हुए टुकड़े को फेंक दीजिए । राजा के यहां राजा ही मेहमान हो सकता है ।
आश्चर्य की बात है कि जब कामनाओं को छोड़ते हैं तब अपने आप की पूरी होने लगती है । लोहा आग में गिरते ही उसके गुण ग्रहण कर लेता है । उसी प्रकार मन चैतन्य में कुछ समय अभेद रूप से एकमेकता से रह जाए तो उसमें अचिंत्य शक्ति आ जाती है ।
एकांत में बैठकर , अपनी व्रतियों का तेज के पुंज स्वरूप आत्मा में अभेद भाव से अनुभव कर ले आनंद के साथ अनुकूल सामग्री चरणों में आएगी । इच्छाओं का फल मिलेगा लेकिन उनका मूल्य चुकाना पड़ेगा । उनका मूल्य यानी उदासीनता , सभी इच्छाओं का त्याग , प्रभु की इच्छा में ही अपनी इच्छा को समा लेना उसी का नाम आत्मसंयम , आत्मसमर्पण और आत्म निवेदन है ।
जब इच्छा रहित हो जाओगे तब ही प्रभु की ओर से सन्मार्ग पाओगे । जब तक इच्छाएं हैं तब तक भीखारी जैसे ही रहोगे । ध्यानपरायण होना यानी इच्छा रहित होना । इच्छा का ध्यान का वह अरतिकर आर्तध्यान है बांसुरी की तरह संपूर्ण इच्छा रहित , अंदर से खाली हो जाओ , तब ही अंदर से मधुर स्वर निकलेगा जिसमें से पूर्णत्व का अमृत बहता रहता है । निरीच्छ इच्छा रहित होने से आत्मा का सन्मान है । परमात्मा का गुणगान इच्छाओं का अंत लाता है क्योंकि परमात्मा स्वयं संपूर्ण रूप से अव्यवस्थित है , राग द्वेष मुक्त है , समस्त गुणों से परीपूर्ण है ।
इच्छा कोन करता है जो अपूर्ण होता है । पूर्ण को इच्छा कहां से हो ? तो यह विचारणीय बात है कि आत्मा स्वभाव से पूर्ण होने पर भी अपने मन में भिन्न – भिन्न इच्छाए , मिथ्या द्रष्टि के कारण होती है ।
मिथ्यादृष्टि हमेशा मिथ्यारागी होता है । इस दृष्टि का त्याग परमात्मा के दर्शन से सुलभ बनता है और आत्म दर्शन से इस दृष्टि का त्याग होता है । इसलिए मन को बार-बार परमात्मा के स्मरण से आत्मा का अनुसंधान करवाना यह निरीच्छ बनने का राजमार्ग है ।