बाह्य सुख-समृद्धि की कामना यह अनात्मभाव पोषक होने से पाप है। पुण्य कार्य के साथ बाह्य मलिन इच्छा का पाप मिलजाने से वह पुण्य भी पुण्यानुबंधी के बदले पापानुबंधी बनता है।
थोड़ासा भी पुण्य, अपना फल अवश्य देता है। लेकिन पुण्य करते समय पुण्य के लौकिक फल की इच्छा करने से यह पुण्य अपना पूर्ण फल देने में समर्थ नहीं बनता, परंतु इच्छा का पाप मिल जाने से वह पापानुबंधी बनकर जीव को दुर्गति के दारुण दु:ख ही देता है इसीलिए दान-पुण्य या धर्म कार्य करते हुए कभी उसके बदले में बाह्य सुख-संपत्ति की अभिलाषा नहीं रखनी चाहिए।
निदान पूर्वक के पुण्य से मिली बाह्य सुख-सामग्री जीव को पिघले गुड पर बैठी मक्खी की तरह क्षणिक सुख आस्वाद करवा कर अंत में आत्म-घातक बनती है। जबकि निष्काम भाव से परोपकार के लक्ष्य से किये पुण्य को और उसके द्वारा मिलती सुख-सामग्री को शक्कर के टुकड़े की उपमा दी जाती है। शक्कर के टुकड़े पर बैठी मक्खी उसके आस्वाद को लेकर अंत में उड़ जाने की भी पूरी क्षमता धारण करती है। इसीलिए पुण्य कर्म करते समय केवल कर्मक्षय और पापक्षय की ही इच्छा रहे और किसी प्रकार की भौतिक इच्छा का सेवन न हो इसकी पूरी सावधानी मोक्षा अभिलाषी जीव को अवश्य रखनी चाहिए।