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जिनधर्म के संस्कारों मत छोड़ना

हंस और परमहंस नामक दो भाई थे। अकलंक जिसे एक ही बार में याद हो जाता और हंस को दुबारा कहने से याद हो जाता है।
ऐसे प्रखर बुद्धि के धनी दोनों बालको में जिनधर्म के संस्कार थे।
बचपन में ही ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया था। इस बात से अनजान पिता ने उनके विवाह की तैयारी करने लगे परन्तु अपने पुत्रो के मुख से जिनधर्म की प्रभावना की इच्छा सुनकर उन्होंने दोनों को तक्षशीला जाने की स्वीकृति दे दी। दोनों भाईयो को अपनी पहचान गुप्त रखकर बौद्ध शिक्षा ग्रहण करनी पढ़ी। उस समय बौद्ध अपना मत बढ़ाने के लिये जैनों पर खूब अत्याचार करते थे, जिनालय, जिन प्रतिमा जी, जिनवाणी सब कुछ नष्ट करने को आतुर थे।
ऐसे विषम काल में जब इन 8 वर्ष के नन्हे बालको ने अपने
सच्चे जैनधर्म पर संकट आते देखा तो उसे बचाने का निश्चय किया।

पर कैसे? वे दो ही थे, वो भी छोटे और शत्रु बलशाली, सत्ताधारी थे।
तब उन्होंने विचार किया की जब शस्त्र कार्य नही करते वहाँ बुद्धि और विवेक से कार्य लेना चाहिये। बौद्ध को बुद्धि से पराजित करना होगा इसलिये धर्म रक्षा के लिये उन्होंने बौद्ध शिष्य बनकर उनकी शिक्षा ग्रहण की। कहते है की नील मणी की आभा छुपाये नही छुपती प्रगट हो ही जाती है, वैसे ही अच्छे जिनधर्मि और ज्ञानी बच्चों का ज्ञानस्वरूपि आभामंडल ही उनके जैन होने का परिचय देने लगा। दुष्टो को पता चलते ही उन्होंने उन नन्हे सुकोमल कुमारो को
मृत्यु दंड देने का आदेश दे दिया।
दोनों भाई जिनधर्म की ध्वजा लिये भागते गये, जब देखा अब बचना मुश्किल है कोई एक को प्राण देने होंगे तो हंस ने कहाँ- भाई आप मुझसे अधिक बुद्धिवान हो जिनधर्म की रक्षा करने में आप अकेले ही सक्षम हो, आप जाओ, इनको मस्तक ही चाहिये ना तो मैं अपना मस्तक देता हूँ। आपकी जिनवाणी माँ को आवश्यकता।
वहा! हंस ने जिनधर्म की रक्षा के लिए अपने प्राण गवा दिए और अकलंकाचार्य ने मुनिधर्म निभाते हुए जिनधर्म बहुत प्रभावना करी और हंस जी का बलिदान व्यर्थ नहीं जाने दिया।
बौद्वो को उनके ही तर्को से परास्त किया।
राजा आदि महाविद्वानो के सामने 8 दिन तक जैनधर्म और बौद्ध धर्म पर वाद-विवाद चला, उन्होंने बौद्ध धर्म की ईट से ईंट बजा दी। राजा के सामने पाखण्डी गुरु की सब पोल खोल दी, कैसे वो एक देवी के सहारे से झूठ बोल रहे थे, जब राजा ने प्रत्यक्ष देखा
तब जिनधर्म को सर्वश्रेष्ठ धर्म घोषित किया और स्वयं भी
पुरे परिवार सहित जिनधर्म का अनुयायी बन गया।

इस प्रकार कालांतर में
जैनधर्म में कई महापुरुष हुए है जिन्होंने जैनधर्म का गौरव बढ़ाया।
हमे भी जितना हो सके धर्म की प्रभावना करनी चाहिए।

जिसके जीवन में जिनधर्म का बीजारोपण ही नही हुआ हो उसका जीवन व्यर्थ है पशु तुल्य है।
सम्यकदर्शन से जीवन का प्रारम्भ है, याने जो समय धर्मध्यान में लगे वही आपका बाकी जो अन्य संसार के कार्यो में लगे वो देह का, विचारिये जो धरा का है वो तो धरा पर ही धरा रह जायेगा

आपके साथ क्या जायेगा?
अपने जीवन को समकित से सुरभित करिये,
जहाँ भी रहो, जिस भी देश में, जिस भी वेश में, जिस भी काल में रहो पर अपने स्वभाव को मत भूलना, जिनधर्म के संस्कारों मत छोड़ना।

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