राधनपुर धर्मपुरी है।उसने कई सूसाधु और सुश्रावकों की जिनशासन को भेट दी है। वहां करमशीभाई नाम के धर्मरागी सुश्रावक थे।पाटण के श्रेष्ठी नगीनदास करमचंद ने बड़ी शान से बड़ा संघ निकाला था। उसकी सभी व्यवस्था संघपति ने करमशीभाई को सौंपी थी। खूब सुंदर व्यवस्था से संघपति की कीर्ति बहुत बडी। नागिनभाई ने उनका बहूमान करने की कोशिश अनेक बार की। लेकिन मालूम पड़ते ही करमशीभाई नौ दो ग्यारह हो जाते । अंत में करमशी भाई के घर उनके लड़के की शादी थी उस निमित्त से अपनी ख्वाहिश पूरी करने के लिए नगीनभाई पहेरामणि के बहाने आये।था वह राबड़ी के बहाने आए नि:स्पृही करमशीभाई ने बोला कि आप तो अब संघवी बने हो,आपको शादी जैसे पाप के प्रसंग में आना कैसे ठीक लगा? इस तरह नगिनभाई को वापस रवाना कर दिए! कितने निः स्पृही?!!
एक बार देरासर में पूजा थी। गायक को पेटी बजाने के लिए कुर्सी पर बिठाते हैं तब पाँव- बाजा पेटी थी। पूजा में म.सा. जमीन पर बैठते हैं ।करमशीभाई साधु के प्रति आदर वाले थे। यह अविनय उन्हें अच्छा नहीं लगा। फिर कभी ऐसा न हो इसलिए उपाय सोच लिया और गायक की बैठक के सामने पेटी जितना गहरा खड्डा खुदवाया। फिर जब पूजा हुई तब पेटी खड्डे में रख पूजा बोले और गायक भी जमीन पर बैठकर ही पूजा बोले! यह है साधु के प्रति अनहद अहोभाव! अंतिम अवस्था के समय उनके माताजी ने कहा, “मेरे आभूषण तेरी पत्नी को देती हूं ।”धर्मरागी करमशीभाई ने कहा, “तेरे आभूषणों का धर्म में दान करके बड़ा लाभ ले ले। तेरी बहू को नए दागिने बाद में करवा दूंगा।” गहने लगभग ५० तोले के थे। माताजी समझ गई और फिर गहने सुकृतो में लगाए।बहुत से जैन भी माता-पिता की मिलकर हमें ही मिले ऐसा चाहते हैं जबकि इस सच्चे धर्मी सुश्रावक ने खुद को अपने आप मिलने वाले गहनों का त्याग कर माताजी के आत्मा के हित का ही विचार किया!
कैसे निर्लाभी! पत्नी को गहनों के बिना चल सकता है लेकिन अंतिम समय पर माँ दान धर्म की आराधना कर ले ऐसी श्रेष्ठ भावना थी।