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पुण्य की परम आवश्यकता

धर्म के दो स्वरूप-

प्रत्येक वस्तु के दो पक्ष होते हैं उसी प्रकार धर्म के भी दो स्वरूप है। मोक्षसाधक जीव को प्रत्येक धर्म-अनुष्ठान द्वारा एक और निर्जरा और एक और संवर होता है। यानी कि बंधे हुए पुराने अशुभ कर्मों का अंशतः क्षय और नए बंध रहे अशुभ कर्मों का निरोध होता है। साथ ही एक और शुभ कर्मों का आस्रव होता है, अर्थात शुभ आस्रव के समय अशुभ कर्मों का संवर और पूर्वोपार्जित पाप कर्मों की निर्जरा भी होती है इसीलिए पुण्यानुबंधी पूण्य को संवर और निर्जरा स्वरूप भी कहते हैं।

शुभ कर्मों का आस्त्रव कहे पुण्य का बंध कहे यह दोनों एक ही है। जब तक मन, वचन और काया रूप योग का व्यापार चालू है तब तक कर्मबंध अनिवार्य है। योगों का व्यापार यदि अशुभ हो तो अशुभ पापकर्मों का और शुभ हो तो शुभ कर्मों का आस्रव अवश्य होता है। तेहरवें सयोगी गुणस्थानक तक योगों का व्यापार चालू रहता है अर्थात वहाँ तक संवर और निर्जरा के साथ पूण्यस्त्राव भी अवश्य होता है।

प्रभु दर्शन, पूजन, व्रत पच्चक्खाण या आवश्यक आदि अनुष्ठानों से शुभ भाव और पुण्यबंध होने से, यह आत्मा के लिए बंधन रूप है, ऐसा मानकर यदि इसकी उपेक्षा की जाए या और अनुपादेयता बताई जाए तो जीव की मोक्ष साधना ही अशक्य बन जाएगी और इस तरह जो सच्चिदानंद स्वरूप की या मोक्षप्राप्ति की तो सिर्फ बातें ही रह जाएगी।

पुण्यबंध करनेवाली क्रियाओं को यदि धर्म ना माना जाए तो चौदहवें गुणस्थानक सिवाय अन्य किसी गुनस्थानक में धर्म सिद्ध नहीं हो सकता और चौदहवें गुणस्थानक कि उच्च कक्षा पहले तेहरवें गुणस्थानक की स्पर्शना प्राप्ति बिना कैसे प्राप्त हो सकती है? इस मान्यता के अनुसार तो मोक्ष असंभव हो जाएगा। क्योंकि मोक्ष के एक अंग रूप व्यवहार पूण्य रूप धर्म से निरपेक्ष मानी हुई निश्चयलक्षी मोक्ष साधना जीव को मोक्षगामी नहीं, परंतु दुर्गतिगामी ही बनती है। इसीलिए संवर और निर्जरा की तरफ पुण्यानुबंधी पूण्य भी धर्म का-मोक्ष पाने का अंग होने से उसे उपादेयता के रूप में स्वीकार कर उसका अधिकाधिक आदर पूर्वक-बहुमान पूर्वक पालन करने का प्रयत्न रहना चाहिए।

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