अपकाय व वायुकाय की विराधना के भय से वे साधु उस यक्ष मंडप में रहकर आराधना करने लगे।
इस बीच उस सार्थवाह ने आकर गुरुदेव को कहा, हे प्रभो! मुझ पर कृपा कर कर आप अपनें साधु को भिक्षा के लिए हमारे तंबू में भेजें।
गुरुदेव ने बाहर नजर की, तब पता चला कि वर्षा बंद हो चूकी है।
आचार्य भगवंत ने वज्रमुनि को भिक्षा के लिए भेजा।
उसी समय वज्रमुनि की परीक्षा के लिए उस देव ने सूक्ष्म जल बूंदों की वृष्टि प्रारंभ की। तत्काल वज्रमुनि वहीं पर रुक गए। कुछ देर बाद उस देव ने जल बिंदुओं का संहारण कर लिया। तत्पश्चात वज्रमुनि तंबू में पधारे।
वज्रमुनि ने अपने श्रुतज्ञान का उपयोग लगाकर द्रव्य-क्षेत्र काल और भाव का निरीक्षण किया और वे सोचने लगे, अहो! इसके पैर भूमि को स्पर्श नहीं कर रहे हैं. . . इसके नेत्र भी स्थिर है तथा यह जो अन्न बहोरा रहा है, वह अन्न भी इस क्षेत्र में सुलभ नहीं है । इन बातों का विचार करते हुए वज्रमुनि ने निर्णय किया कि सचमुच यह तो देव-पिंड होना चाहिए और देव पिंड साधु के लिए अकल्प्य कहा गया है ।इस प्रकार निर्णय कर वज्रमुनि ने कुछ भी बहोरने से इंकार कर दिया।
बाल वज्रमुनि के इस उत्कृष्ट सत्त्व बल को देखकर वह देव प्रसन्न हो गया । उसने वज्रमुनि को वैक्रियलब्धि प्रदान की।
दूसरी बार पुनः किसी देव ने वज्रमुनि की परीक्षा की।उस परीक्षा में उस देव ने वणिक का रूप किया और घेबर का दान करने का लगा . . . परंतु वज्रमुनि पुनः उस वणिक के देव स्वरूप को पहचान गए।
वज्रमुनि ने वह देव- पिंड लेने से इंकार कर दिया । परिणाम स्वरुप उस देव ने वज्रमुनि को आकाशगामिनी विद्या प्रदान की।
बाल्यवय में ही वज्रमुनि ग्यारह अंगों के ज्ञाता बने हुए थे। परंतु उन्होंने कभी भी अपने ज्ञान का प्रदर्शन नहीं किया। अन्य किसी भी मुनि को वज्रमुनि की विद्वता का कोई परीचय नहीं था।. . . अतः वज्रमुनि प्राथमिक प्रारंभिक सूत्रों के अध्ययन की ओर विशेष ध्यान नहीं देते, तब स्थविर मुनि ,वज्रमुनि को अध्ययन करने के लिए प्रेरणा देते। वे कहते, वज्रमुनि! यह लघुवय अध्ययन की वय है । इस वय में अध्ययन करोगे तो तुम्हें विशेष लाभ होगा। इस वय में अध्ययन की उपेक्षा करना उचित नहीं है।