वज्रमुनि की इस बात को सुनकर आचार्य भगवंत एकदम खुश हो गए. . . और उन्होंने शुभदिन शुभमुहूर्त में ज्ञानदान प्रारंभ किया। वज्रमुनि विनय पूर्वक अध्ययन करने लगे. . . इसके परिणाम स्वरुप अल्पकाल में हीं वज्रमुनि दशपूर्वों के ज्ञाता बन गए।
तत्पश्चात भद्रगुप्त सूरी जी म. साहब की आनुज्ञा लेकर वज्रमुनि ने दशपुर नगर की और अपना प्रयाण प्रारंभ किया। क्रमशः आगे बढ़ते हुए वज्रमुनि दशपुर नगर में पहुंचे। वहां पर पूर्व भव के मित्र जृंभक देवताओं ने मिलकर वज्रमुनि के दशपूर्व ज्ञान की प्राप्ति का भव्य महोत्सव कीया। गुरुदेव ने योग्य जान कर उन्हें आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया। तत्पश्चात
सिंहगिरी गुरुदेव ने अनशन व्रत स्वीकार किया और अत्यंत ही समाधिपूर्वक काल धर्म प्राप्त कर स्वर्ग में गए।
रुक्मिणी का प्रतिबोध
पृथ्वी तल पर विचरते हुए वज्रस्वामी अपने प्रवचन लब्धि से भव्य जीवो को प्रतिबोध देने लगे। 500 शिष्यों के गुरु-पद पर प्रतिष्ठित वज्र स्वामी आचार्य भगवंत जहां भी जाते, वहां अद्भुत शासन प्रभावना होती। अनेक भव्यात्माएँ देशविरति ओर सर्वविरति धर्म का स्वीकार करती।
इधर पाटलिपुत्र नगर में धन-धान्य से समृद्ध एक सेठ रहता था, उस सेठ की पुत्री का नाम रुक्मिणी था। उस नगर में वज्र स्वामी साध्वियाँ श्राविकाओं के आगे धर्मोपदेश देती। धर्मोपदेश के अंतर्गत वे वज्रस्वामी के रूप-लावण्य सौभाग्य आदि गुणों का वर्णन करती। वज्र स्वामी के रूप- लावण्य आदि गुणों को सुनकर उस रुक्मिणी ने निश्चय कर लिया कि इस जीवन में वज्रस्वामी के साथ ही विवाह करना है।
रुक्मिणी के इस संकल्प को जानकर साध्वी जी भगवंत ने उसे समझाते हुए कहा, रुक्मिणी! तुम्हारा यह संकल्प उचित नहीं है। जैन मुनि तो स्त्री के सर्वथा त्यागी होते है। उनके साथ पाणी- ग्रहण करने का तेरा संकल्प कभी साकार नहीं हो सकेगा।