अन्य मुनियों को कहाँ पता था कि ये वज्रमुनि वय में बाल होते हुए भी श्रुत के पारगामी हैं।
. . . . यद्यपि वज्रमुनि अत्यंत ही गंभीर थे, परंतु छोटी सी एक घटना ने गुरुदेव की भ्रांति हटा दी और उन्हें ख्याल आ गया कि वज्रमुनि तो महाज्ञानी है। वह घटना इस प्रकार बनी।
एक बार अन्य सभी मुनि गोचरी के लिए बाहर गए हुए थे और गुरुदेव सिंहगिरी स्थंडिल भूमि पर गए हुए थे । उस समय वसति (बस्ती) में वज्रमुनि अकेले ही थे।
कुतुहुल वश वज्रमुनि ने सभी मुनियों की उपाधि मंडलाकार स्थापित कर दी और स्वयं गुरु की भांति (वाचनाचार्य बनकर) बीच में बैठकर ग्यारह अंग के गंभीर सूत्रों पर प्रभावशाली ढंग से वाचना देने लगे। थोड़ी ही देर बाद सिंहगिरी वसति के निकट आ पहुंचे। उन्हें दूर से वज्रमुनि की वाचना के शब्द सुनाई दिए । वे सोचने लगे, अहो! क्या सभी मुनि बाहर से आ गए हैं और वज्र उन्हें वाचना दे रहा हैं? गुरुदेव ने बंद द्वार के छिद्र में से झांककर देखा – उन्होंने अकेले वज्रमुनि को अंग गत पदार्थों पर वाचना देते हुए देखा। उन्हें अत्यंत ही आश्चर्य हुआ। अहो! यह बाल मुनि ग्यारह अंगो का ज्ञाता है ? परंतु आश्चर्य है कि अभी तक इसने अपनें ज्ञान का भी प्रदर्शन नहीं किया। अहो! इसकी गंभीरता कितनी है?
यदि मैं उपाश्रय में अचानक प्रवेश करूंगा तो यह शर्मिंदा हो जाएगा, इस प्रकार विचार कर सिंहगिरी गुरुदेव ने द्वार पर आकर जोर से निसीहि, निसीहि, निसीहि कहां। अपनें गुरुदेव के इन वचनों को सुनकर वज्रमुनि ने गुरुदेव के आगमन को पहिचान लिया। तत्क्षण उसने सारी उपधि नियत स्थान पर रख दी और वे तत्काल गुरुदेव के सम्मुख आकर गुरुदेव की चरणरज दूर करने लगे और उसके बाद गुरुदेव को योग्य आसन पर बिठा उनका पाद प्रक्षालन करने लगे।