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प्रभावक सूरिजी – भाग 7

नागार्जुन जंगल में जा पहुंचा। उसने उन ओषधियों की शोध की। शोध के परिणाम स्वरुप उसे वे ओषधियाँ मिल ही गई। उसने उन ओषधियों का मिश्रण कर पादलेप तैयार किया। उस लेप को तैयार कर उसने अपने पैरों में लगाया, जिसके फलस्वरुप वह कुछ उड़ा, किंतु एक औषधि की न्यूनता के कारण वह तुरंत नीचे गिर पड़ा, जिससे उसके घुटनो से रक्त बहने लगा।

नागार्जुन की यह स्थिति देख आचार्य श्री बोले, नागार्जुन! गुरु के बिना कभी विद्या सिद्ध नहीं हो सकती है।

उसने कहा, गुरुदेव! यह तो मैंने अपनी बुद्धि की परीक्षा की है।
आचार्य श्री ने कहा, यदि मैं तुझे विद्या सिखा दूं तो बदले में तु मुझे क्या देगा?
नागार्जुन ने कहा, जो आपकी आज्ञा होगी।

नि:स्पृह गुरुदेव के ह्रदय में भौतिक पदार्थों की तो और क्या आकांक्षा हो सकती है। सदैव परमात्मा के कल्याण में तत्पर गुरुदेव बोले, तो बस! नागार्जुन मैं और कुछ नहीं चाहता हू, तू जैन धर्म स्वीकार कर और उसका पालन कर।

नागार्जुन ने गुरुदेव की आज्ञा शिरोधार्य की। तत्काल आचार्य श्री ने अपूर्ण ओषधि को पूर्ण करने की विधि बतला दी।

बस, नागार्जुन के ह्रदय में आकाश गमन की जो तीव्र उत्कंठा थी वह साकार हो गई।

उसके बाद तो नागार्जुन आचार्य श्री का परम भक्त बन गया और उस भक्ति के फलस्वरुप उसने शत्रुंजय तीर्थ की तलहटी में गुरुदेव की स्मृति के लिए पादलिप्त नगर बसा दिया, साथ ही शत्रुंजय तीर्थ पर भगवान महावीर का भव्य जिनालय भी बनवाया, जिसकी प्रतिष्ठा बड़े ही उत्साह से आचार्य श्री के कर-कमलों द्वारा संपन्न की गई।

शासन रक्षा और प्रभावना

पृथ्वीप्रतिष्ठान नगर में प्रख्यात महाराजा सातवाहन राज्य करता था। 1 दिन उसी राज्यसभा में प्रकांड विद्वान ऐसे चार महाकवियों का आगमन हुआ। राजा उनकी प्रतिभा से अत्यंत प्रभावित हुआ। उन कवियों ने संक्षिप्त रुचि वाले महाराजा के समक्ष श्लोक का एक-एक चरण प्रस्तुत किया। मात्र एक ही श्लोक में चारों शास्त्रों का दोहन आ गया।

यह सुनकर राजा अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने उनको अत्यंत दान दिया।

महादान को प्राप्त कर सभी प्रसन्न हुए, फिर भी उन्होंने कहा, राजन! आपने तो हमारे कार्य की प्रशंसा की, किंतु आप के परिवार ने तो प्रशंशा नहीं की।

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August 8, 2018
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