राजा ने राजकुमार और नूतन मुनि के जाने के बाद दो गुप्तचरों को यह जानने के लिए नियुक्त किया कि राजकुमार और मुनि कहां कहां जाते हैं।
महल से निकलने के बाद राजकुमार ने सोचा, यह सभी जानते हैं कि गंगा पूर्व की ओर बहती है, राजा भी जानता है और प्रजा भी, फिर व्यर्थ ही गंगा तट पर जाने का परिश्रम क्यों करूं? ऐसा सोचकर वह नगर में ही इधर-उधर घूमने लगा।
राजमहल से निकलने के बाद नुतन मुनि ने अनेक लोगों से पूछा- ‘गंगा किस ओर बहती है? सभी ने कहा, पूर्व में। परंतु नहीं। मुझे प्रत्यक्ष जाकर तसल्ली कर लेनी चाहिए, क्योंकि गुरुदेव की आज्ञा है और उनकी आज्ञा सदैव सप्रयोजन होती है, निष्प्रयोजन नहीं, ऐसा सोचकर के गंगा तट पर पहुंचे। जल में बहते हुए पत्तों से गंगा प्रवाह की दिशा का निर्णय किया। अंत में अपने दंड नदी में डालकर पक्का निर्णय लिया कि गंगा पूर्व में बहती है। ऐसा निर्णय कर वे गुरुदेव के पास लौटे। तब तक राजकुमार भी आ चुका था।
राजा ने पूछा, “राजकुमार! देख आए, गंगा किस ओर बहती है?
राजकुमार, हां! देख लिया। गंगा पूर्व में बहती है।
फिर राजा ने नूतन मुनि से पूछा- उन्होंने अपनी पूरी बात कह दी।
राजा ने गुप्तचरो से सही जानकारी प्राप्त की। राजा को सत्य की प्रतीति हो गई की जो विनय गुरुकुल में है, वह राजकुल में नहीं है।
निस्पृहता
भरोच में सिद्धनागार्जुन नामक क्षत्रिय पुत्र था। वह अत्यंत ही पराक्रमी और साहसी था। कहते हैं बाल्यवय में (3 वर्ष की उम्र में) उन्होंने एक सिंह के बच्चे को मार डाला था। वह सिद्ध रसायन का प्रेमी था, अतः उसका अधिकांश समय जंगल में ही बीतता था। कई महात्माओं की कृपा से उसे अनेक विद्याओं की प्राप्ति हुई थी। सुवर्णरस विद्या भी उसने सिद्ध कर ली थी। अनेक विद्याओ और ओषधियों से संपन्न होकर वह अपने नगर में आया।
आचार्य पादलिप्त सूरिजी म. अपने विशाल शिष्य परिवार के साथ उसी नगर में विराजमान थे। उसने सुना कि आचार्य भगवंत के पास पादलेप विद्या है, जिसके बल से आकाश में गमन किया जा सकता है। आकाशगामिनी विद्या के लाभ से उसने हमें सुवर्णसिद्धिरस भरकर अपने सेवक के द्वारा पादलिप्त सूरी म. के पास भिजवाया। उस सेवक ने आचार्य भगवंत को घटना सुना दी।