पुत्र प्राप्ति के लिए उन्होंने अनेक देवी-देवताओं की आराधना की, किंतु पूण्य अनुकूल ना हो तो देव भी क्या कर सकते हैं।
अंत में पुण्य अनुकूल हुआ। दंपत्ति ने पार्श्वनाथ प्रभु की अधिष्ठात्री नागजातीय वैराट्या देवी की अठ्ठम के तप पूर्वक आराधना की। आराधना से देवी प्रसन्न हुई और उन्होंने पुत्र की मांग की।
देवी ने कहा- “विद्याधर गच्छ में महाप्रभाविक कालीकाचार्य नामक प्रभावक पुरुष हुए हैं। उनकी परंपरा में अभी नागहस्ति आचार्यदेव विद्यमान है। उन्होंने पाद प्रक्षालन के जलपान से तुम्हें पुत्र-प्राप्ति होगी।”
देवी के इस बात को सुनकर दंपत्ति का ह्रदय आनंद से भर आया। प्रतिमा ने आचार्य भगवंत के पास जाने का संकल्प किया।
आचार्य नागहस्ति सत्वशाली और महाप्रभाविक पुरूष थे। अभी कुछ दिनों पूर्व ही अपने विशाल शिष्य-परिवार के साथ शाही स्वागतपूर्वक उनका नगर में पदार्पण हुआ था।
प्रतिमा देवी उपाश्रय में पहुंची। आचार्य भगवंत स्थंडिल भूमि जाकर अभी-अभी उपाश्रय में लौटे थे। उनके आगमन के साथ ही सभी मुनिगण अपने-अपने आसन पर खड़े हो गए थे और उनके पाद प्रक्षालन आदि से गुरुभक्ति कर रहे थे। पाद प्रक्षालन के जल को परिष्ठापन करने के लिए एक मुनि दरवाजे की ओर बढ़ रहे थे तभी प्रतिमा देवी ने मुनि को वंदन किया और गुरुदेव के पाद प्रक्षालन के लिए जल की मांग की, मुनि ने प्रतिमा को कुछ जल दे दिया। वह तुरंत उस जल को पी गई।
जलपान के बाद वह आचार्य भगवंत की और बड़ी और उसने देवी के वरदान की सब बात आचार्य भगवंत को सुना दी।
आचार्य भगवंत ने कहा, “है श्राविके! तूने 10 हाथ दूर रहकर यह जलपान किया है, अतः तेरा पुत्र तुझ से 10 योजन दूर मथुरा में बड़ा होगा ओर इस पुत्र के बाद तुझे नो पुत्रों की और भी प्राप्ति होगी।
प्रतिमा ने कहा, “गुरुदेव! पुत्र का जन्म हो और वह मुझसे दूर रहें, इससे तो वह आपके पास रहे, इसे ही मैं श्रेष्ठ समझती हूं। अतः पुत्र जन्म के बाद पहला पुत्र मैं आपको अर्पित कर दूंगी।”
गुरुदेव ने कहा, “भद्रे! तू भाग्यशाली है, तेरी कुक्षी से पैदा हुआ पुत्ररत्न अत्यंत प्रभावशाली होगा, वह अनेक जीवो का उद्धार करेगा और जैनशासन की विजय पताका को चारों ओर फैलाएगा।”