सभी श्रावकों ने कहा, “गुरुदेव! इस कलंक निवारण के लिए हम अपना सर्वस्व त्याग करने के लिए तैयार है।”
गुरुदेव ने कहा, “तो सुनो मेरी बात! यहा से में थोड़ी देर बाद अपने आसन पर चला जाऊंगा, वहां जाकर अपने प्राणों को ब्रह्मरंध्र में स्थापित कर दूंगा। मेरा शरीर निश्चेष्ठ हो जाएगा। आप मुझे मृत घोषित कर देना। तत्पश्चात आप मेरी शमशान-यात्रा निकालना। समस्त राजमार्गों से घुमाकर मेरी शव यात्रा उस पांचाल कवि के द्वार से भी निकालना। मेरी इस शमशान-यात्रा से उसे यदि पश्चाताप हो जाए, तब तो कलंक का निवारण हो ही जाएगा……..।”
“गुरुदेव! गुरुदेव! आप तो चतुर्विध संघ के आधारस्तंभ हो, इस प्रकार आपकी जीवंत श्मशान-यात्रा निकालना कहां तक उचित है और मान लो उस पांचाल कवि को पश्चाताप न हुआ तो……?” श्रावको ने अपने ह्रदय की वेदना प्रकट की।
आचार्य भगवंत ने कहा, “महानुभावों! आप घबराओ मत। मुझे आत्मविश्वास है कि इस योजना में मुझे सफलता मिलेगी और जिनशासन पर का कलंक धूमिल हो जाएगा। यदि उस कवि को पश्चाताप न हो तो मेरा जीवन्त अग्नि संस्कार कर देना।”
श्रावको ने कहा, “गुरुदेव इस प्रकार की बात सुनकर तो हमारा ह्रदय ही कांप रहा है।”
“महानुभावो! अपने इस भौतिक देह से भी जैनशासन की कीमत अत्यधिक है और इसके लिए मुझे अपना बलिदान भी करना पड़े तो वह मुझे सहर्ष स्वीकार है। अतः जिन शासन के इस कलंक निवारण के लिए आपको इस कार्य में सहयोग देना ही चाहिए।”
अंत में सभी श्रावकों ने आचार्य भगवंत की आज्ञा शिरोधार्य की।
आचार्य भगवंत अपने आसन पर आकर बैठ गए। थोड़ी देर बाद उन्होंने सोने का बहाना किया और उन्होंने अपने प्राण ब्रह्मरंध्र में स्थापित कर लिए। बाह्य श्वास को उन्होंने रोक दिया। उनका शरीर निश्चेष्ठ हो चुका था।
समय बीतने लगा। एक बजा……. दो बजा……. परंतु आचार्यदेव उठे नहीं।
“गुरुदेव शायद थके हुए होंगे, इसीलिए आज ज्यादा आराम में है।” इत्यादि सोचकर पहले तो सभी शिष्य निश्चिन्त थे…….. परंतु काफी समय बीतने के बाद भी जब आचार्य भगवंत नही उठे…… तो शिष्य गण ने निकट आकर देखा…….. और मुख पर से कपड़ा हटाया।
मुख देखते ही सभी शिष्य आवक रह गए…….नाड़ी और धड़कन देखी…….नाड़ी बन्द थी….. शरीर के किसी भाग में हलन-चलन नही थी। दृश्य देखते ही कितने ही शिष्य तो धरती पर मूर्छित हो गए……. “अरे! अचानक गुरुदेवश्री को क्या हो गया?”