बालक के दिल में पिता के दर्शन की तीव्र उत्कंठा पैदा हुई और एक दिन माता को ठगकर वह पिता की शोध में निकल पड़ा।
उस समय शय्यंभव सूरि जी. म. चंपा नगरी में विचरण कर रहे थे। भाग्य योग से वह बालक भी चंपा नगरी के बहार आ पंहुचा। उस समय शय्यंभव सूरि जी म. स्थंडिल भूमि से वापस नगर की और आगे बढ़ रहे थे।
बालक ने दूर से ही आचार्य भगवंत को देखा और आचार्य भगवंत ने उस बालक को देखा । बालक को देखते ही आचार्य भगवंत के ह्रदय में सहज ही प्रेम का सागर उमड़ पड़ा। अपरिचित अवस्था में भी पूर्व संबंध के कारण प्रेम का सागर उछल पड़ता है।
निकट आने पर आचार्य भगवंत ने उस बालक को पूछा, ‘वत्स! तुम कोन हो? कहाँ से आए हो और तुम्हारे माता-पिता कौन है?’
बालक ने कहा, ‘ मैं राजगृही नगरी से आया हूँ। मैं वत्स गोत्रीय शय्यंभव ब्राह्मण का पुत्र हूँ। मैं जब गर्भ में था तभी मेरे पिता ने दीक्षा अंगीकार कर ली थी । अतः उनकी शोध करने के लिए मैं घर छोड़कर निकल पड़ा हूँ। क्रमशः घूमते हुए यहां आया हूँ। क्या आप मेरे पिता को पहिचानते हो? यदि आप उनके बारे में मुझे जानकारी देंगे तो मैं आपके उपकार को कभी नही भूलूंगा। पिता को जानकर मैं भी उनके चरणों में दीक्षा अंगीकार कर लूंगा, उनका मार्ग ही मेरा मार्ग है।’
आचार्य भगवंत ने कहा, वत्स! में तुम्हारे पिता को अच्छी तरह से पहिचानता हूँ। उनमे और मुझमे कोई फर्क नही है। इस प्रकार समझाकर उसे उपाश्रय में ले गए। तत्पश्चात् उसकी योग्यता जानकर आचार्य भगवंत ने उसे भागवती दीक्षा प्रदान कर दी।
आचार्य भगवंत ने अपने ज्ञान के बल से बालमुनि मनक के भविष्य पर दृष्टिपात किया। उन्हें पता चला की इसका आयुष्य बहुत ही अल्प है। छः मास में ही इसका जीवन पूरा हो जाएगा। अतः यह श्रुत पारगामी तो नही बन सकता है।
उन्होंने सोचा, ‘ कोई चौदहपूर्वी, दशपूर्वी विशेष प्रयोजन उत्पन्न होने पर श्रुतसागर का समुध्दार कर सकते है। मणक के प्रतिबोध का प्रसंग उपस्थित हुआ है, अतः क्यों न सिद्धान्त के अर्थ के समुच्चय रूप सिद्धान्तसार का उद्धार करू’-इस प्रकार विचार कर विभिन्न पूर्वो के अध्ययन की सारभूत गाथाओं का चयन कर शास्त्र का सर्जन किया। विकाल वेला में उसका सर्जन हुआ होने से उस ग्रन्थ का नाम ‘दशवैकालिक’ पड़ा।