‘ पिताजी! आप मुझे आज्ञा दिजिए। आपकी आज्ञा मुझे शिरोधार्य है। अपने कुल क्षय को बचाने के लिए में अपने जीवन का बलिदान देने के लिए भी तैयार हूँ। पिताजी! फरमाइए! क्या आज्ञा है?’
‘ बेटा! अपने कुलक्षय को बचाने के लिए मैंने जो योजना तैयार की है; उसमे तूं अपना सहयोग देगा न?’
पिताजी! आप यह कैसी बात कर रहे है…..में आपका समर्पित पुत्र हूँ……… आपकी आज्ञा के पालन के खातिर में अपने प्राणों का बलिदान देने के लिए भी तैयार हूँ।
‘बेटा! फिर तूं बदल नही जायेगा न?’
‘नही! पिताजी ‘
‘ बेटा! में ऐसे भी वृद्ध हो चूका हूँ। मृत्यु मेरा स्वागत करने के लिए समुत्सुक बनी हुई है। जंहा तक मेरा सोचना है अपने कुल के रक्षण के लिए मेरा बलिदान अत्यंत ही जरुरी है।’
‘ नही! पिताजी नही! बलिदान आपका नही, मेरा हो।’
‘बेटा! मैं राजा के मंत्री पद पर हूँ……….परन्तु राजा के दिल में मेरे प्रति विश्वास नही रहा है….. परन्तु तू राजा के अंगरक्षक के पद पर है; और विश्वास पात्र है, अतः कल ज्योही में राजसभा में राजा को प्रणाम करने के लिए अपना सिर झुकाऊँ , त्योंही तुम मेरे मस्तक को अपनी तलवार से उड़ा देना।’
पिताजी! पितृ हत्या का यह घोर पाप मुझसे सम्भव नही है। इसके बजाय तो में ही क्यों न अपनी आत्महत्या कर लूँ।’
बेटा! तेरी मौत से कुलक्षय को बचाना शक्य नही है। राजा की दृष्टि में मैं गुन्हेगार हूँ……. तुम निर्दोष हो। और अपनी पितृ हत्या का तुम जो सवाल उठा रहे हो , उसका भी मेने उपाय शोध लिया है।’
राजसभा में प्रवेश के बाद मै अपने मुंह में विष की गोली डाल दूंगा…….
उस विष के प्रभाव से ऐसे भी मै मरने ही वाला हूँ……. अतः मेरी गर्दन पर प्रहार करने पर भी तुम पितृ घातक नही गिने जाओगे।’
यद्यपि श्रीयक पिता के मस्तक को छेदने के लिए तैयार नही था……..परन्तु पिता के वचन के खातिर उसे अनिच्छा से भी यह बात स्वीकार करनी पड़ी।
रात्रि व्यतीत हुई।
दूसरे दिन मंत्रीश्वर ने राज सभा में जाने के लिए प्रयाण किया। उसे अपनी आंखों के सामने मौत दिखाई दे रही थी , अपनी मृत्यू को सुधारने के लिए उसने प्रभु नाम का स्मरण किया। तत्पश्चात् राजसभा में प्रवेश करने के बाद उसने अपने मुँह में विष डाल दिया।
महाराजा के निकट पहुचने के बाद मंत्रीश्वर ने राजा के चरणों में प्रणाम किया….. परन्तु उसी समय राजा ने अपना मुंह फेर लिया …. और तत्क्षण श्रीयक ने तलवार से मंत्रीश्वर का शिरोच्छेद कर दिया।