अंत में आर्यरक्षित ने अत्यंत विनम्र भाव से कहा- वास्तव में, मैं इस स्वागत के योग्य नहीं हूं। महाराजा तथा पूजनीय माता-पिताश्री के शुभ आशीर्वाद से ही मैं थोड़ा बहुत ज्ञानार्जन कर सका हूं…….. वास्तव में यश के भागी तो वही है……उनकी कृपा से ही मुझे थोड़ा बहुत ज्ञान मिला है, अतः इस सम्मान के अधिकारी तो वे पुज्यवर ही है ।
इतना कहकर आर्यरक्षित ने अपना आसन ग्रहण किया। तत्पश्चात नगर के मुख्य व्यक्तियों ने आर्यरक्षित की प्रशक्ति करते हुए काव्यपाठ प्रस्तुत किए।
थोड़ी ही देर बाद महामंत्री ने प्रजाजनों का आभार मानकर सभा विसर्जित कर दी।
आर्यरक्षित अपने स्वजन- मित्रजन वर्तुल के साथ अपने घर की ओर आगे बढ़ने लगे। हर दृष्टि हर नजर में वे अपनी मां को खोज रहे थे……परंतु कहीं भी उनकी उन्हें अपनी प्यारी मां के दर्शन नहीं हो पाए। तीर्थसभा मां के चरण-रज के स्पर्श के लिए उनके दिलो-दिमाग में तड़पन थी। जल बिन मछली की भांति उन्हें इस स्वागत में कोई भी आनंद नहीं आया था।
आर्यरक्षित ने सोचा- शायद घर के द्वार पर मां खड़ी होगी। मां के दर्शन कर में पावन बन सकूंगा। परंतु घर भी आ गया। आर्यरक्षित की आशा के बादल बिखर गए…….. माता के दर्शन की पिपासा शांत ना हो पाई। पड़ोस की स्त्रियों ने अक्षत और कुमकुम का तिलक कर आर्यरक्षित का स्वागत किया।
आर्यरक्षित ने घर आंगन में प्रवेश किया……. परंतु कहीं भी उन्हें अपनी प्राण प्यारी मां दिखाई नहीं दी…… आखिर मन में घूमड रहा वह प्रश्नवाचा के द्वारा व्यक्त हो ही गया।
आर्यरक्षित ने पुकारा- “मां….. मां….. मां….ओ मां!”
परन्तु घर के किसी कोने से कोई प्रत्युत्तर प्राप्त नहीं हुआ।
आखिर आर्यरक्षित ने पूछ ही लिया, “मां कहां है”?
पता चला मां ऊपरी खंड में बैठी है और सामायिक कर रही है। मां की ममता का प्यासा आर्यरक्षित तेजी से ऊपरी खंड में पहुंच गया। दूर से ही उसने माँ के दर्शन किए और उसकी आंखें हर्ष व आनंद से भीग गई।