महाराजा उदायन और विप्रवर सोमदेव अग्र पंक्ति में खड़े थे।
आर्यरक्षित ने सर्वप्रथम महाराजा और अपने उपकारी पिता सोमदेव के चरणों में प्रणाम किया।
वर्षों बाद पिता पुत्र का वह अद्भुत मिलन था। दोनों की आंखों में हर्ष केआंसू बह रहे थे। पुत्र के दिल में समर्पण और सम्मान का भाव था।
पुत्र के इस नम्र व्यवहार से सोमदेव का ह्रदय आनंद से भर आया……….पिता ने पुत्र को हृदय से आशीर्वाद दिए।
त्याग, नम्रता और समर्पण आर्य संस्कृति के जीवंत प्रतीक हैं। राजा आर्यरक्षित को आशीर्वाद दिया……. और उसे हाथी पर आरूढ़ किया। वाद्य-यंत्रों की ध्वनि और जय जयकारों से सारा आकाश मंडल गूंज उठा।
नगर वासियों ने आर्यरक्षित का हार्दिक स्वागत और अभिनंदन किया।
आर्यरक्षित भी हाथ जोड़कर सभी का अभिवादन स्वीकार कर रहे थे।
स्वागत यात्रा धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगी।
सभी के दिल में आनंद और उत्साह था। चारों और भीड़ जमा थी।
सभी के मुख पर प्रसन्नता थी……… परंतु आर्यरक्षित कुछ विचारों में खो गए थे। उनकी नजर चारों और घूम रही थी। ज्यों-ज्यों उनकी नजर दौड़ रही थी……… त्यों-त्यों उनका दिल व्यथा से भर रहा था। भीड़ के बीच स्वजन कुटुम्बी व मित्रजन सभी दिखाई दे रहे थे …….परंतु वात्सल्यमूर्ति मां के कहीं दर्शन नहीं हो पा रहे थे।
माता तो वात्सल्य की साक्षात मूर्ति होती है। उसके रोम रोम में संतान के प्रति प्रेम और वात्सल्य होता है।
विशाल भीड़ के बीच मां के दर्शन न होने से आर्यरक्षित का मन व्यथित हो उठा।…….सभी स्वजन मित्रजन आ गए ………परंतु मां क्यों नहीं आई?
क्या मां को मेरा स्वागत पसंद नहीं? क्या मां के दिल में अब मेरा कोई स्थान नहीं? क्या मां के प्रति मुझसे कोई अविनय हो गया? क्या मां स्वस्थ नहीं है? इत्यादि अनेक विचारों आर्यरक्षित के मन को घेर रखा था।
ज्यों-ज्यों स्वागत यात्रा आगे बढ़ रही थी ……..त्यों-त्यों मां के दर्शन की उत्कंठा तीव्र बनती जा रही थी……..परंतु अफसोस! नगर के किसी भी द्वार पर आर्यरक्षित को अपनी मां के दर्शन नहीं हो सके।
मां के बिना उसे यह स्वागत/आडंबर नीरस प्रतीत हो रहा था।