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आर्यरक्षित सूरिजी – भाग 32

आर्यरक्षित मुनिवर ने गुरुदेव के चरणों में प्रणाम किया।

काफी समय के बाद गुरुदेव श्री के दर्शन हो रहे थे………. अतः गुरु दर्शन से उनका मन पुलकित हो उठा।

उन्होंने गुरुदेव की कुशल पृच्छा की। गुरुदेव ने आर्यरक्षित को हृदय से आशीर्वाद दिए।

गुरुदेव ने अपने ज्ञान के उपयोग से देखा- मेरा आयुष्य अब अल्प है और आर्यरक्षित आचार्यपद के लिए हर तरह से योग्य है, अतः उसे आचार्य पद पर प्रतिष्ठित करना ही चाहिए। – यही सोचकर गुरुदेव ने आर्यरक्षित को आचार्य पद प्रदान करने का निर्णय किया।

वे स्वयं ज्योतिविर्द थे। उन्होंने पंचांग देखकर आचार्यपदवी के लिए शुभ दिन निकाल लिया और पाटलिपुत्र संघ को इस संबंध में जानकारी दी ।

आर्यरक्षित मुनिवर कि आचार्य पदवी के समाचार से समस्त जैन संघ में आनंद की लहर फैल गई। संघ ने बहुत ही भक्ति भाव से आचार्य पदवी का महोत्सव किया और एक शुभ दिन शुभ घड़ी में गुरुदेव ने आर्यरक्षित मुनिवर को विधि पूर्वक अपने पद पर प्रतिष्ठित कर दिया।

जैन शासन में आचार्य की बहुत बड़ी जवाबदारी है। तीर्थंकर परमात्मा के विरह काल में जैनशासन की धुरा को आचार्य भगवंत ही वहन कर सकते हैं।इस पद के लिए महान योग्यताएं होनी चाहिए। हर किसी को इस पद पर प्रतिष्ठित नहीं किया जा सकता है।

ज्योही गुरुदेव ने आर्यरक्षित के मस्तक पर आचार्य पद का वासक्षेप डाला, त्योंही ‘नूतन आचार्य अमर रहे’। ‘जैनम जयति शासनम’। आदि नारो से आकाश मंडल गूंज उठा। चारो ओर जिनशासन की अद्भुत प्रभावना हुई। गुरुदेव ने नूतन आचार्य को अपने आसन पर बिठाया और समस्त संघ के साथ नूतन आचार्य को वन्दन किया।

गुरुदेव ने अपनी समस्त संघीय जवाबदारी नूतन आचार्य को सौंप दी।

आचार्यपदवी का महोत्सव सानंद संपन्न हुआ।

आर्यरक्षित मुनि से मुनिपति बने।

तोसलि पुत्र आचार्य भगवंत अति वृद्ध हो चुके थे। उनकी काया अत्यंत कृश बन चुकी थी…… फिर भी उनके मुख मंडल पर अद्भुत तेज था।

धीरे-धीरे समय बीतने लगा।

तोसलि पुत्र आचार्य भगवंत का स्वास्थ्य धीरे धीरे गिरने लगा।

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