‘सर्व साधुओं को वंदन करने के बाद गुरु चरणों में बैठे हुए श्रावक को भी प्रणाम करना चाहिए’ इस विधि का ज्ञान नहीं होने के कारण आर्यरक्षित ने वहाँ बैठे हुए श्रावक को प्रणाम नहीं किया। आर्यरक्षित कि इस अपूर्ण क्रिया को देखकर तोसलि पुत्र आचार्य भगवंत ने सोचा, यह कोई नवीन श्रावक लगता है, अतः आचार्य भगवंत ने उससे पूछा हे महानुभाव! किससे धर्म की प्राप्ति हुई है?
आर्यरक्षित ने पास में ही बैठे श्रावक की ओर इशारा किया।
इसी बीच एक मुनिवर ने आकर कहा- भगवन! यह तो श्रमणोपासिका रुद्रसोमा का पुत्र है। कल ही राजा ने इसका नगर प्रवेश करवाया था। चौदह विद्याओं में पारगामी बन कर आया है…… परंतु यहां इसे आगमन का क्या कारण है? यह पता नहीं है।
उसी समय अत्यंत प्रसन्न होकर आर्यरक्षित ने कहा- गुरुदेव! मेरी माता ने मुझे दृष्टिवाद के अध्ययन के लिए आपके पास भेजा है…… मैं आपके पास दृष्टिवाद के अध्ययन के लिए आया हूं।
आचार्य भगवंत सोचने लगे-धन्य है उस माता को। धन्य है उस श्राविका को, जो इस प्रकार स्नेह के बंधनों को तोड़कर पुत्र की आत्म हित की चिंता कर रही है। वास्तव में यह पुत्र बड़भागी है, जिसे मोक्ष मार्ग में प्रेरक ऐसी माता मिली है।
आर्यरक्षित के मुख पर प्रसन्नता थी….. वाणी में मधुरता थी…. और ह्रदय में समर्पण का भाव था। मन-वचन-काया के पवित्र शुभ योगों ने आचार्य भगवंत के दिल में एक आकर्षण जमा दिया।
तोसलि पुत्र आचार्य भगवंत सोचने लगे-यह महानुभाव अपने पवित्र आचारों से अत्यंत कुलीन प्रतीत होता है। ‘आकृतिर्गुणान् कथयति’ की उक्ति के अनुसार इसमें अनेकविध योग्यताएं रही हुई है। यह आसक्ति/श्रद्धालु प्रतीत होता है और इसमें अपनी मातृकुलोचित मृदुता/कोमलता दिखाई दे रही है……. अतः यह जिनेश्वर परमात्मा के द्वारा बताए हुए मार्ग के लिए योग्य है।
इस विचार के साथ ही गुरुदेव तोसली पुत्र ने श्रुत का उपयोग दिया और श्रुतज्ञान के बल से आर्यरक्षित का भविष्य देखने लगे-अहो! युगप्रधान-वज्रस्वामी के पश्चात यह जिन शासन की यश पताका को दिग-दिगंत तक फैलाने वाले महान प्रभावक होने वाले हैं।