इक्षुवाटिका के एक खंड में तोसलीपुत्र आचार्य भगवंत विराजमान थे। उस खंड में अनेक मुनिवर स्वाध्याय और ध्यान में तल्लीन थे। स्वाध्याय की शब्द ध्वनि सुन कर आर्यरक्षित द्वार पर ही खड़ा हो गया और असमंजस में डूब गया, अहो! यह जैन मुनि स्वाध्याय में मग्न बने हुए हैं। इनके पास कैसे जाना चाहिए? क्या बोलना चाहिए? किस प्रकार बातचीत करनी चाहिए? इत्यादि विधि से तो मैं अनभिज्ञ हूं। जिससे ज्ञान पाना है- उनके औचित्य का किसी प्रकार से भंग ना हो जाए- यह चिंता आर्यरक्षित को सताने लगी।
वह सोचने लगा- अंदर जाऊँ? या न जाऊँ?
पुण्यशाली को किसी भी कार्य की सिद्धि के लिए कोई विशिष्ट प्रयत्न और पुरुषार्थ करना नहीं पड़ता है, उसके लिए तो लक्ष्मी स्वयं द्वार पर आकर खड़ी होती है।
आर्यरक्षित चिंतामग्न था कि मैं आचार्य भगवंत के पास कैसे जाऊं?
……. उसे भय था कि कोई अविधि हो जाए तो कहीं लाभ के बदले नुकसान ना हो जाए।
थोड़ी ही देर में नगर से एक सुश्रावक आचार्य भगवंत को वन्दन करने के लिए इशूवाटिका में आया। उसने आचार्य भगवंत के खंड में प्रवेश किया। द्वार पर छीपकर आर्यरक्षित श्रावक की प्रत्येक क्रिया को सूक्ष्मता से देखने लगा। श्रावक ने गुरुदेव के चरणों में विधि पूर्वक वन्दन किया। बुद्धि निधान आर्यरक्षित ने श्रावक की गुरु वंदन विधि को बराबर याद कर लिया।
जिस व्यक्ति/आत्मा पर सरस्वती की कृपा बरसती हो…………. उस पुण्यधन आत्मा को, एक बार ही सुनने से याद हो जाए, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। आर्यरक्षित में अवधारणा की कोई अपूर्व शक्ति थी।
गुरु वंदन कर श्रावक गुरु चरणो में बैठ गया।
बस! मन में अत्यंत ही शुभ भाव को धारण कर आर्यरक्षित ने गुरुदेव के खंड में प्रवेश किया और सर्वप्रथम मस्तक पर अंजली स्थापित कर मस्तक झुकाते हुए ‘मत्थएण वंदामि’ बोला। तत्पश्चात अत्यंत ही विनम्र भाव से उसने विधिपूर्वक गुरु को वंदन किया और वंदन करने के बाद वह गुरु चरणों में बैठ गया।