मां ने कहा, हे वत्स! मेरी बात तू ध्यानपूर्वक सुन। इस दृष्टिवाद के ज्ञाता जैन मुनि होते हैं। वे महासत्वशाली होते हैं, सन्मार्गगामी होते हैं…….. और उस मार्ग पर चलते समय बीच में कितने ही परिषह-उपसर्ग भी आए तो भी वे सन्मार्ग से च्युत नहीं होते हैं। आत्म-साधना ही उनका जीवन मंत्र होता है। भौतिक जगत से पर होते हैं। अब्रह्म और परीग्रह के पाप से वे सर्वथा मुक्त होते हैं। संसार में जीवात्मा को इन्ही दो पापों का आकर्षण होता है….. परंतु यह जैनमुनि इन दोनों पापों से सर्वथा मुक्त होते हैं-इतना ही नहीं वह अपने जीवन में, जीवन निर्वाह के लिए भी किसी जीव की हिंसा नहीं करते है। इनके जीवन में अहिंसा की पुर्ण प्रतिष्ठा होती है। उनका मन परमार्थ में स्थित होता है। दुनिया के क्षणिक और भौतिक सुखों के वे त्यागी होते
हैं…… जीवन की प्रत्येक पल वे आत्मा के शुद्धिकरण में व्यतीत करते हैं। इतना ही नहीं वे सम्यग ज्ञान- सम्यग दर्शन और सम्यक चरित्र की साक्षात मूर्ति होते है।
इस प्रकार जैन मुनि के जीवन का वृतांत कहने के बाद रुद्रसोमा ने कहा, बेटा! इस दृष्टिवाद के ज्ञाता तोसलीपुत्र आचार्य है।
मां! ओ मां! मुझे जल्दी कह…… वे आचार्य कहां विराजमान हैं?
बेटा! वे आचार्य भगवंत अभी इक्षुवाटिका में विराजमान है।
मां! वे मुझे दृष्टिवाद पढ़ाएंगे न?
हां! बेटा! वे तुझे अवश्य दृष्टिवाद सिखाएंगे……तू नम्र है……तू विनीत है…….तू अवश्य उनका कृपापात्र बनेगा। बेटा! जा, मेरा शुभ आशीष है, तू दृष्टिवाद का अध्ययन कर।
मां! तेरी इस मंगल-भावना को पूर्ण करने के लिए मैं कल ही प्रातः काल आचार्य भगवंत के पास जाऊंगा।- आर्यरक्षित ने कहा।
माँ की आंखों में हर्षाश्रु आ गए। आर्यरक्षित मां के चरणों में गिर पड़ा। रुद्रासोमा ने पुत्र के मस्तक पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिए।
मां-पुत्र ने शाम का भोजन किया। तत्पश्चात आर्यरक्षित अपने शयनकक्ष में पहुंच गया।