अभी तो माता त्रिशला भी नहीं थी! समग्र राजमहल सुमसाम हो गया था ! रात्री के समय में यशोदा एक ज़रूखे में आकाश की ओर नेत्र को स्थिर कर खड़ी थी ! ‘ कैसी थी वह लग्न की प्रथम रात ! कैसा था वर्धमानकुमार का निर्दोष वात्सल्य को बरसाता हाथ ! कैसा माता त्रिशला का अजोड़ वात्सल्य !
यशोदा अतीत में गुम होकर खुद की वर्धमान के साथ बिताई हुये पलों को याद कर रही थी! संपूर्ण क्षत्रियकुंड में नीरव शांति छाई हुई थी ! चंद्र की चांदनी राजमहल के ज़रूखों को शुसोभित कर रही थी ! चंद्र को भी जाने मन हो गया हो कि ,’ विश्व की सर्वोत्तम संसारीनारी के दर्शन करुं ! इस तरह चाँद चांदनी के द्वारा यशोदा को अनिमेष नयनो से निहार रहा था!
“माँ ! बोल तो सही ?मैं अभी तुझे भी अप्रिय होने लगी हूँ क्या ? कि दो -तीन दिन से मेरे साथ भी तू बोलती नहीं ! बापुजी तो कौन जाने ? कहाँ गए,
परंतु •••••••••” प्रियदर्शना यशोदा का पल्लू खिंच रही थी तभी ही यशोदाको ख्याल आया कि माता और स्वामी के विरह में वह लड़की के ओर का औचित्य भी भूल गई थी ! ‘बिचारी प्यारी प्रियदर्शना का इसमें क्या दोष ?’ तुरंत ही यशोदा नीचे बैठ गई , प्रियदर्शना को गोदमें बिठाकर प्यार से उसके मस्तक पर हाथ प्रसारने लगी !
यशोदा : ” बेटी ! तू तो हमारे दुश्मन को भी अप्रिय नहीं होती , तो तेरी अम्मा को कैसे अप्रिय होगी? यह तो दो दिन पहले ही तेरे दादा – दादीको भगवानने हमेशा के लिये उनके पास बुला लिया ! इसलिए उनके विचारों में ही दो दिन से चिंतित थी ! इसलिए मैं तेरा ध्यान रख नहीं पाई ! मुझे माफ़ करना ! ”
प्रिया : ” तो भी माँ ! परंतु यह तो कहे कि बापुजी कहाँ गए ? क्या उन्हें भी भगवानने उनके पास बुला लिया •••••••”
त्वरित ही प्रियदर्शना के मुख पर हाथ दबाकर यशोदा बोली ,” नहीं , नहीं प्रिया ! वे यहाँ क्षत्रियकुंडमें ही है !
प्रिया : ” तो फिर वे तेरे पास क्यों नहीं आते ? मुझे मिलने क्यों नहीं आते ? उन्हें तो मुझ पर बहुत स्नेह है ! तो क्या वे मुझे भी भूल गए ? ”
बिचारी प्रियदर्शना ! पिता वर्धमान के औचित्य सेवन को वह अपार स्नेह समझ बैठी थी ! क्या करे छोटी थी ना …