अमरकुमार अपने जहाज में पहुँच कर सीधे ही अपने कमरे में घुस गया । दरवाजा बंद करके पलंग पर लेट गया । उसका मन बकवास करने लगा :
अब मेरा काम हुआ ..। बदला लेने की मेरी इच्छा तो थी ही … पर वह इच्छा प्रेम की राख के नीचे दबी दबी सुबक रही थी । हाँ … मुझे भी उस पर प्यार था , फिर भी उसके कहे हुए कटु शब्दों के घाव भरे कहां थे ? आज यकायक उस करारे घाव की वेदना फफक उठी और मैंने बदला ले लिया । हां…. हां…. हां…. हां…।’ पागल की तरह अमरकुमार हंसने लगा ।
‘वो यक्ष …? हां… रात होते ही वो आयेगा… और उसे उसका अच्छा शिकार मिल जायेगी । राज्य लेने जाते वह खुद ही शिकार बन जायेगी । यक्ष के त्रुर जबड़ों में वह समा जायेगी …हां… हां… हां…।’
उसने बारी में से यक्ष द्विप की ओर देखा । द्विप अब एक बिन्दु सा नजर आ रहा था ।
‘बस…। अब सिहलद्विप जाकर मन चाहा व्यापार करूंगा…। काफी पैसा कमाऊंगा… धनकुबेर बन जाऊंगा।’
परिचारिका ने द्वार खटखटाया… वह भोजन लिये आयी थी … अमरकुमार ने इनकार करते हुए कहा : ‘आज भोजन नहीं करना है … तू वापस ले जा ।’
इधर सुरसुन्दरी जब जगी तब चार घड़ी बीत गयी थी । उसने अमरकुमार को अपने पास न देखा तो वह झटके से खड़ी हो गयी और पेड़ों के झुरमुट में अमरकुमार की खोजने लगी । ‘वो जरूर कहीं छुप गये हैं… मुझे डराने के लिये । अभी वो पीछे से आकर मेरी आँखों पर हथेली बांध देंगे । फिर मुझे पूछेंगे : ‘बता , मैं कौन हूँ …?’ मैं कहूँगी, ‘इस द्विप के अधिष्ठायक यक्षराज ।’ और फिर वे कहकहा लगाकर हंस देंगे … और मेरे सामने आकर खड़े रहेंगे : ‘सुन्दरी तू कितना सो गयी थी ?’
सारे वननिकुज में सुरसुन्दरी ने अमरकुमार को खोजा पर अमरकुमार न मिला , उसका अता-पता नहीं मिला । तब सुरसुन्दरी घबरा उठी। उसने आवाज लगायी….
आगे अगली पोस्ट मे…