‘अमरकुमार, तुम्हारी वह पत्नी थी कैसे यह तो बताओ जरा ?’
‘महाराजा, मै क्या उसका बयान करूँ ? उसमे अनगिनत गुण थे ! रूप में तो वह उर्वशी थी… रंभा थी…. मै अपने मुँह क्या अपनी पत्नी की प्रशंसा करुं ? परन्तु…’
‘तुम्हे तुम्हारी उस पत्नी की याद तो सताती होगी ना ?’
‘पल पल याद आती है महाराजा, उसको छोड़ देने के बाद एक रात ऐसी नही गुजरी है कि मै उसकी यादों में खोया खोया रोया न होऊँ !’
‘तो क्या उसका तुम्हारे पर कम प्रेम था ?’
‘प्रेम ? वह चकोरी थी…मै चकोर था । हमारी प्रीत अभेद्य थी, अच्छेद्य थी ।’
‘तो फिर टूट क्यो गई ?’
‘प्रीत टूटी नही है…. प्रीत तो अखंड है ! ‘
‘इसका सबूत क्या है ?’
‘मैंने अन्य किसी भी औरत के साथ शादी नही करने का संकल्प लिया है ?’
‘तो क्या तुमने बारह साल में किसी भी औरत से शादी नही की है ।’
‘की भी नही और करने वाला भी नही हूँ !’
‘तब तो तुम्हारी प्रीत सच्ची है अमरकुमार ! एक बात पूंछू ? मान लो की कोई आदमी तुम्हे तुम्हारी पत्नी के समाचार दे– क्या नाम बताया था तुमने तुम्हारी पत्नी का ?’
‘सूरसुन्दरी ! ‘
‘वाह, कितना बढ़िया नाम है ।’ वह सुरसुन्दरी जिन्दा है और अमुक जगह पर है । तो क्या करोगे तुम ?’
‘महाराजा ये सारी बाते पूछकर अब आप मुझे क्यो ज्यादा दुःखी कर रहे हो ? वह जिन्दा हो ही नही सकती ! उस यक्षद्वीप पर रात रहनेवाला सवेरे का सूरज देखता ही नही कभी ।’
‘फिर भी मान लो कि, तुम्हारी पत्नी के पुण्य के बल से उसके शील-सतीत्व के प्रभाव से जिन्दा रही हो तो….? ?’
‘तो…तो मै मेरा परम सौभाग्य मानु… वह जहाँ पर भी हो… जाकर उसके चरणों में सर रख दूँ… क्षमा मांगू मेरे अपराधो को….पर वह सब कोरी कल्पना है महाराजा ! ! !
‘यह तो अमरकुमार…. तुम खुद अभी दुःख में फँसे हो…. आफत में घिरे हो… इसलिए इतनी नम्रता बता रहे हो… ऐसा मै मानू तो ?’
‘सही खयाल है आपका….. आप मेरी बात को सच मान ही नही सकते हो ना? चूंकि मै आपका गुनहगार हूँ ना ?’
‘नही, ऐसा तो नही…तुम अपराधी हो इसलिए तुम्हारी बात गलत मान लू वैसा मै नही हूँ । पर आदमी का ऐसा स्वभाव होता है की दुःख से नम्र रहता है…. और दुःख के जाने पर वापस अभिमान का पुतला बन जाता है ! तुम अभी तो अपनी पत्नी से क्षमा माँगने की बात कर रहे हो….
उसे याद करके आँसू बहा रहे हो… पर उसके वापस मिल जाने पर फिर से उसे अन्याय नही करोगे इसका भरोसा क्या ?’
आगे अगली पोस्ट मे…