महाराजा गुणपाल मंत्रणाग्रह में बैठे हुए थे । अमरकुमार और सुरसुन्दरी ने जाकर प्रणाम किये । महाराजा ने बड़े स्नेह से दोनों का अभिवादन किया ।
‘आओ…. आओ… मै तुम दोनों की प्रतीक्षा ही कर रहा था !’
अमरकुमार के सामने देखते हुए महाराजा ने कहा :
‘कुमार, तुम्हे तो सुरसुन्दरी मिल गई…. पर हमारा तो विमलयश खो गया…. हम तो उसे गवां बैठे !’ और तीनों खिलखिलाकर हंस दिये ।
‘कुमार, तुम्हे मेरे विमलयश ने काफी दुःख दिये, नही ?’
महाराजा ने सुरसुन्दरी के सामने देखते हुए कहा ।
‘पिताजी, मैने मेरे अपराधों की क्षमा माँग ली !’
‘और, मैंने दे भी दी क्षमा ।’
‘तब तो अच्छा ही हुआ । आपस में ही समाधान खोज लिया…! ठीक है, पर कुमार, अब तुम्हे मेरी एक विनती स्वीकार करनी होगी !’
‘महाराजा, आपको विनती करने की नही होती…. आज्ञा कीजिये । मै तो आपके पितातुल्य हूं ।’
‘कुमार…. यह तुम्हारी नम्रता है, तुम्हारे गुणों से मैं प्रसन्न हूं ।’
‘आप आज्ञा कीजिये ।’
‘तुम्हे गुणमंजरी के साथ शादी रचानी है !’
अमरकुमार ने सुरसुन्दरी के सामने देखा । सुरसुन्दरी ने कहा :
‘नाथ, महाराजा का प्रस्ताव उचित है । मेरी भी बड़ी इच्छा है…. और मैने गुणमंजरी को भी मना लिया है ।’
अमरकुमार मौन रहा। सुरसुन्दरी ने महाराजा से कहा। :
‘पिताजी, इनकी स्वीकृति ही समझे । आपके प्रस्ताव को भला कैसे टाला जा सकता है ?’
‘बेटी, तुम दोनों सुयोग्य हो । गुणमंजरी को तुम्हे सुपुर्द करके मै तो बिल्कुल निश्चित हूं ।’
‘आप राजपरोहितजी से बढ़िया मुहूर्त निकलवाईये, फिर शादी कर दीजियेगा ।’
महाराजा का चित्त प्रमुदित हो उठा । अमरकुमार के गुंणगम्भीर और सौन्दर्यसम्पन्न व्यक्तित्व से वे प्रभावित हो गये थे । हालांकि, सुरसुन्दरी के साथ हुए अन्याय को जानकर ‘मेरी बेटी के साथ तो ऐसा विश्वासभंग नही होगा न ?’
यह आशंका उन्हें कुरेद रही थी, पर संसार में साहस तो करना ही पड़ता है ! आखिर सुख-दुःख का आधार तो स्वयं के शुभाशुभ कर्म ही होते है !
अमरकुमार सुरसुन्दरी के साथ अपने महल पर आया। वह गहरे सोच में डूब गया था । कपड़े बदलकर वह पश्चिम दिशा के वातायन में जाकर खड़ा रहा ।
‘बड़े गंभीर सोच में डूब गये हो ?’
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