आंसू भरी हुई आंखों से पुरोहित ने उस प्रौढ़ व्यक्त्ति के सामने देखा और कहा :
‘ भाई , हमारे खाने-पीने की बात तो करना ही मत। महीनों से हमारा खाना-पीना हराम हो गया है। न तो खाना अच्छा लगता है… न पीना मन को भाता है । शाम को वे दुष्ट लोग… अग्नि को घर में डाल जाएंगे। फिर तीन घंटे तक अग्नि बेहोश पड़ा रहेगा…। एक प्रहर बीतने के बाद हम उसे नहलाएंगे…। उसे प्यार से समझापटा कर कुछ खिलाएंगे । इसके बाद हम दोनों कुछ दो-चार कौर पेट में डाल देंगे ।’
फिर तो सारी रात अग्नि का कल्पांत चलता है… नहीं सहन होता है यह सब। परंतु कर भी क्या सकते हैं ? देश छोड़कर चले जाने का विचार भी आता है, पर ये राक्षस हमें यहां से जाने भी नहीं देंगे ।’
वुद्ध पुरुष चले गये थे। सोमदेवा बाहर आई… उसने युवानोंसे कहा : ‘भाई… तुम सब भी अब अपने अपने काम-धंधे पर जाओ। हम भी अब देव-पूजा करेंगे ।’
युवान खड़े हुए। उन्होंने यज्ञदत्त और सोमदेवा को प्रणाम किये और वे चले गये ।
अग्निशर्मा की सवारी नगर के बाहर बड़े कुँए के पास पहुँची। गुणसेन ने शत्रुध्न से कहा : ‘अब तुम अपने इस राजा को दो बगल में रस्सा डालकर मजबूती से बांध दो । फिर राजा को कुँए में उतरेंगे ।’
अग्निशर्मा जोर जोर से रोने लगा । ‘नहीं… नहीं… मुझे मत बांधो… मुझे कुँए में मत उतारो….।’ वह गधे पर से नीचे उतरने लगा…. पर जमीन पर नीचे ढेर हो गया। वह गुणसेन के पैरों में लौटने लगा । मुझे छोड़ दो… मुझे मेरे घर पर जाने दो ।’
इतने में जहरीमल ने अग्निशर्मा की पीठ पर कसकर लात लगाई । अग्निशर्मा चीख उठा । गुणसेन जोर से हंस पड़ा । अग्निशर्मा जब जब भी रोता… या चीखता… चिल्लाता… तब गुणसेन तालियां पीट पीट कर ख़ुशी मनाता …।
कुष्णकांत ने दो हाथ से अग्निशर्मा को खड़ा किया । शत्रुध्न ने उसके बगल में रस्सा बांधा और उसे उठाकर कुँए के किनारे पर ले गया । गुणसेन , शत्रुध्न और जहरीमल भी कुँए पर चढ़ गये थे । कुष्णकांत ने दो हाथ से अग्निशर्मा को उठाया और वहां पर उपस्थित लोगों के सामने रखा। जहरीमल ने घोषणा की : ‘भाई, अब अपने इस राजा को इस कुँए में जी भरकर स्नान करवायेंगे। डुबकियां खिलायेंगे। राजा को मजा आ जाएगा ।’
‘नहीं नहीं… मुझे स्नान नहीं करना है। मुझे डुबकी नहीं लगाना है…। मुझे बचाओ , ये दुष्ट मुझे मार डालेंगे …।’ अग्निशर्मा चिल्लाकर बोला।
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