सोमदेवा-
मैं तो रोजाना मंदिर में जाकर भगवान को उपालंभ देती हुई कहती हूं … ‘भगवान , तूने हमें ऐसा कुरूप पुत्र देकर दुःखी किया… ठीक है । हम पुत्र का भलीभांति लालन – पालन करेंगे । पर यह राजकुमार और उसके मित्र उस पर जो अत्याचार गुजारते हैं… उसे तो तुम रोक सकते हो । मेरे इस बेटे की तो रक्षा करो…। हम तुम्हारे भक़्त है , तुम हमारे भगवान हो , तुम्हें हमारी रक्षा करनी ही होगी। अब मेरे से पुत्र की पीड़ा… देखी नहीं जाती । उसका उत्पीड़न सहा नहीं जाता । रोजाना उसकी क्रूर कदर्थना होती है । क्रूर मजाक होती है… उसे घोर दुःख दिया जाता है । तुम भी यदि हमारी तरह असहाय होकर यह सब देखा करोगे तब फिर तुम भगवान कैसे ? एक मासूम अपाहिज बच्चे पर शैतान के अवतार से इन्सान जुल्म गुजारते रहें , फिर भी यदि भगवान खामोश रहकर तमाशा देखा करे… तो वह भगवान कैसे ?’
यों कहकर… निराशा और संताप के साथ वापस घर आती हूं… ईश्वर की शक्त्ति पर का भरोसा हिल गया है।
सोमदेवा का दिल भर आया। वह रो पड़ी। उसे ढ़ाढस बंधाते हुए यज्ञदत्त ने कहा :
‘अग्नि की मां, ईश्वर की ताकत कम नही हुई है… परंतु दुःख सहन करने की हमारी क्षमता घट गई है…।’
इतने में, दूर से ढोल – कांसे की आवाजें उभरने लगी। ‘अभी इस वक़्त जोर जोर से ढोल क्यों बज रहा होगा ?’ इसके बारे में सोचे तब तक तो उसी मुहल्ले के दो युवान घर में आये और कहा :
‘पुरोहितजी , घोर जुल्म हो रहा है । प्रजाजनों को उत्पीड़ित करके राजकुमार पाशवी आनंद मना रहा है ।’
‘क्या हुआ भाई ?’
‘अग्निशर्मा की घोर कदर्थना ।’
‘हमने बहुत अनुनय किया… मत ले जा मेरे लाडले को…षपर वह दुष्ट कुष्णकांत जोरतलबी करके अग्नि को उठा ले गया ।’
‘चूंकि वह गुणसेन का चमचा है… मंत्रिपुत्र और सेनापति का लड़का भी राजकुमार की दृष्टता के हिस्सेदार है ।’
‘हां, यह जो ढोल बज रहा है ना ? वह शत्रुध्न ही बजा रहा है। गधे पर अग्नि को बिठाकर… उसके सिर पर कांटे का मुकुट पहनाकर…, गले में लाल फूलों की माला डालकर… सिर पर पुराने टूटे फूटे सुपड़े का छ्त्र बनाकर , उसे गाँव के बाहर ले जाया जा रहा है । हजार जितने बच्चे एकत्र हो गये है… हंसते है…गाते है… चीखते है… चिल्लाते है…। गधा भी कूद रहा है… अग्नि बेचारा..
आगे अगली पोस्ट मे…