महाराज अरिदमन का कक्ष रत्नदीपको से मिल- मिला रहा था। शयनगृह सुन्दर था। सुशोभित था। रात का पहला प्रहर चल रहा था। महाराजा अरिदमन सोने के रत्नजड़ित पलंग पर लेटे हुए थे। महारानी रातिसुन्दरी पास ही भद्रासन पर बेठी हुई थी दोनों के चेहरे पर चिंता की रेखाए अंकित थी। किसी गंभीर सोच में दोनों डूबे हो वेसा लग रहा था। हवा के साथ साथ लहलहाते दिये की लो राजा- रानी के चंचल चित्त की मानो चुगली कर रही थी। एक ही एक लाड़ली बेटी सुरसुन्दरी के सुख का भावी सुख का विचार दोनों माता- पिता कर रहे थे। पुत्री पर दोनों को अघात प्यार था इस्लिये पुत्री दुखी न हो इसकी चिंता पिता को होती ही है। अरिदमन ने आस पास के गाँवो में, राज्यो में और दूर दुर तक प्रदेशो में अपने निपुर्ण दूत भेजे थे सुरसुन्दरी के लिए सुयोग्य राजकुमार की तलाश के लिए। दूत राजकुमार के चित्र एवं उनके परिचय लेकर वापस लौटे थे। राजा के सामने उन्होंने वह सब प्रस्तुत किया था पर राजा को एक भी राजकुमार पसन्द नहीं आ रहा था। सुरसुन्दरी के भावी पति के रूप में कोई राजकुमार खुबसुरत था तो गुणवांन नहीं था यदि कोई गुणवान था तो सुन्दरता से रहित था कोई रूप गुण से युक्त था पर पराक्रमी नहीं था यदि कोई पराक्रमी था तो जिनधर्म का अनुयानि नहीं था कोई जिनधर्म में प्रस्थावना था तो सौन्दर्य नहीं था उसमे यदि कोई धर्मात्मा था तो कुल की द्रष्टी से उचा नहीं था राजा तो अपनी लाड़ली बेटी के लिए ऐसा दूल्हा खोजना चाहता था जो की रूप गुण पराक्रम कुल और धर्म से युक्त हो। जो जो विशेषताए सुरसुन्दरी में थी वे सब विशेषताए जिसमे हो ऐसा राजकुमार उन्हें चाहिए था। चूँ कि राजा मानता था की पति और पत्नी में रूप गुण की समानता के साथ साथ धर्म शील और स्वभाव की समानता भी होना जरुरी है तब ही उनका ग्रहसंसार सुखी हो सकता है, उनका धर्म पुरुषार्थ निर्विघ्न होता है और जीवनयात्रा निरापद बनी रहती है।
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