विमलयश की कीर्ति कौमुदी बेनातट के समय राज्य में फैली ही, पर आस पास के
राज्यो में भी उसकी प्रशंसा होने लगी। उसका यश फैलने लगा। सावन के भरे भरे
बादलो की भांति विमलयश की उदारता बरसती रही। दयाकरुणा का प्रवाह बहता रहा। साथ
ही साथ राजकुमारी गुणमंजरी का स्नेह भी बढ़ता जा रहा था। कोमाय के तेज से
देदीप्यमान गुणमंजरी के दिल के सरोवर में प्रीत का कमल खिलता ही जा रहा था ।
उसकी शतदल पंखुरियों में आंतर सख्य की सुरभि महक रही थी। एक दिन उसने विमलयश
से कहा :
‘कुमार क्या प्रेम यह मनुष्य के अस्तित्व की धुरी नही है ? जीवन का सनातन सत्य
नही है ? अनंत की यात्रा का श्रेष्ट साधन नही है ?’
और तब विमलयश को….. उसके भीतर में रही हुई सूरसुन्दरी को अमरकुमार के साथ
का शादी के पूर्व का वार्तालाप याद आ गया। स्नेह के सुकुमार रोमांच को जानने
वाली उसके देह उसकी स्मृति से थर थारा गयी ! तब गुणमंजरी ने विमलयश को आंखों
में आंखे डालते हुए कहा था :
‘विमल… चलो.. अपन एक साथ जीने का वादा करे…. संग रहने का संकल्प करे…
मान्य है तुम्हे ?’
तब विमलयश की आंखे छलछला उठी थी । ऐसी बातें मैने अमर से कही थी ! अमर ने मुझ
से वादा किया था… वचन दिया था… पर ! ! !
उसने दूर-सुदूर गगन में फैले हुए अंतहीन बादलो पर निगाह फेकी और बोला :
मंजरी, देख आकाश में अष्टमी का चांद जैसे कि पूनम को पाने की आशा में जी रहा
है…. घूम रहा है…?’
‘सही बात है तुम्हारी…. उसकी आशा सफल होगी ही !’
विमलयश को नंदीश्वर द्वीप पर सुने हुए महामुनि के वचन याद आ गये :
‘तेरी आशा बेनातट नगर में फैलेगी ! ‘और उसने सोचा : क्या सभी आशाए फलती है इस
संसार मे ? फिर भी आशाओ का अवलंबन लिए बगेर अपन कहा रहते है ? ‘
इतने में गुणमंजरी को घुंघरू सी आवाज उसके कानों में टकरायी :
‘कुमार, दिल-देह आत्मा से तुझे ही अपना जीवन साथी माना है… इतना याद रखना!’