सेठ के चेहरे पर कुछ आभा छा गयी थी । धनवती गहरे सोच में डूबने लगी थी ।
‘आपकी बात सही है , मेरा राग , मेरी आसक्ति ही मुझे दुःखी बना रही है। अमर का इस में क्या दोष है ? सुन्दरी भी क्या कर सकती है ? और आखिर सुन्दरी तो अमर के ही साथ रहे यह ज्यादा ठीक है ।’
‘अमर ने तो साथ चलने की उसे बिल्कुल मनाही की थी पर पुत्रवधु ने ही हठ की ।’
‘उसकी हठ को मैं अच्छा समझती हूं , पर प्रियजन का विरह मुझे दुःखी कर रहा है …. राग तो संयोग ही चाहता है न ?’
‘उस राग को दूर करने का , कम करने का अमोध उपाय है जिनवचन कि बार बार रटना करना …. संबंधो की अनित्यता चिंतवन कारना । संसार के भीतरी स्वरूप का बार बार विचार करो ।
ऐसा विचार मन हल्का कर देता है । मैंने तो अपने मन को तैयार भी कर दिया है , शुभ दिन में अमर को बिदा करने के लिये ।’
‘नहीं, आप इतनी जल्दबाजी न करें। मुझे मेरे मन को स्वरूप कर लेने दो …. मेरे रागी…. आसक्त मन को थोड़ा विरक्त हो जाने दो ।’
जब तक तुम हंसकर अनुमति नहीं दोगी वहां तक तो मैं उसे अनुमति थोड़े ही दूंगा ? पर तुम्हारा वह लाडला भी तुम्हारी इजाजत के बगैर थोड़े ही जायेगा? इसका मुझे तो पूरा भरोसा है । उसे तुम्हारे पर अथग अनुराग भी है , पर जवानी का जोश ही कुछ ऐसा होता है ।’
मुझे दुःख हो… पसंद न हो … ऐसा एक भी कार्य उसने आज तक नहीं किया है , यह मैं जानती हूं । उसकी मातृभत्ति अदभुत है । इसलिए उस पर मेरा राग इतना धढ़ हो चूका है ।’
‘कुछ बरस का वियोग सहन करने के लिये मन को मजबूत बना लो । युवान पुत्र देश-परदेश में घूमें-फिरे… इसमें अपना भी गौरव बढेगा ही । उसके मन को इच्छा भी पूरी होगी । उसे सुख मिलेगा । उसके सुख में अपना सुख । वह सुखी तो अपन भी सुखी ।’
सेठ धनावह ने धनवती के मन को स्वरूप बनाने का प्रयत्न किया । काफी शांति से और प्रेम से रोजाना धनवती के साथ तत्वज्ञान की बातें करने लगे । धनवती के साथ ज्यादा समय बिताने लगे । मन में तो ऐसा निर्णय भी कर लिया कि अब वे ज्यादा से ज्यादा समय धनवती के साथ ही गुजारेंगे । अमर के जाने के बाद स्वयं पेढ़ी पर आना जाना कम कर देंगे । मुनिमों को अधिकांश कार्यभार सौंप कर स्वयं निवुत्त से बन जायेंगे ।’
आगे अगली पोस्ट मे…