शत्रुघ्न मौन हो गया । पर उसके मन मे डर तो छा ही गया था । कृष्णकांत भी बेचैन हो उठा था । अग्निशर्मा घोर पीड़ा से कराहता हुआ चीख रहा था :
‘ओ ईश्वर, अब तो मुझे इस सन्नास से छुटकारा दिला दें।’ यों रोते-रोते कलपते हुए वह ईश्वर को प्रर्थना करता रहा :
कृष्ण पक्ष की अष्टमी का अंधेरा पृथ्वी पर साया बनकर लिपट रहा था । जंगल मे स्थित महल में से अग्निशर्मा को लेकर रथ बाहर निकला और क्षितिप्रतिष्टित नगर को ओर दौड़ने लगा :
नगर की सुरक्षा ले लिए चौतरफ पत्थर का किला था। उस किले में, चारों दिशाओं की ओर चार द्वार थे । उत्तर दिशा के दरवाजे के बाहर यक्ष का एक जीर्ण मंदिर था । रथ इस मंदिर के बाहर आकर खड़ा रहा । जहरीमल रथ में से उतरा । उसने अंधकार में चारों ओर देखा….। जल्दी से रथ में से अग्निशर्मा को उठाया और मंदिर के चबूतरे पर लाकर सुला दिया । रथ में बैठकर रथ को नगर के भीतर दौड़ा दिया । राजमहल से कुछ दूर निर्जन जगह पर रथ खड़ा रहा । तीन मित्र उसमें से उतर गये । गुणसेन ने रथ को राजमहल के द्वार पर लाकर द्वारपाल को सौंप दिया, एवं स्वयं राजमहल के सोपान चढ़ने लगा । उसका मन आज आनंदित था। बिना किसी रोक टोक और विघ्न-विरोध के, आज का उसका खेल हुआ था। इसकी खुशी मानता हुआ वह महारानी कुमुदिनी के महल में पहुँचा ।
‘वत्स, आज सवेरे से तेरे दर्शन ही नहीं हुए !’ रानी ने कुमार के सर पर हाथ फेरते हुए पूछा ।
‘माँ, हम सब दोस्त आज सवेरे ही हमारा वह खिलौना लेकर अपने जंगल के महल पर गये थे । मा आज तो बड़ा मजा आया ! शिकारी कुत्ते के द्वारा उसके साथ खेल किये !’
‘मन आये सो कर…पर बेटे, सब के बीच में कुछ भी नही करना !’
‘आज तो किसी को कुछ भी पता नही लगा होगा !’
‘इसका मुझे पता नही, पर तेरे पिताजी ने आज खाना नही खाया है ।
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