सुरसुन्दरी धनवती के पास जा पहुँची । धनवती के चरणों मे वंदना की….धनवती ने सुन्दरी को अपनी गोद मे खींच लिया ।
सुरसुरन्दरी को धनवती में रतिसुंदरी की प्रतिकृति दिखायी दी। धनवती के दिल में लहराते स्नेहसागर में वह अपने आप को डुबोने लगी। उसकी आँखों में वात्सल्यता के बादल मंडराने लगे। सुरसुरन्दरी टकटकी बांधे धनवती को देखने लगी….उसके बाहरी सौन्दर्य को देखती रही,,,उसके अंतर व्यक्तिव को देखती रही,,,महसूस तो रही,,यह रूप,,यह सौन्दर्य,,यह सब कुछ अमर मे ज्यो का त्यों उतरा है।वह मन ही मन सोचने लगी। अपनी तरफ सुरसुरन्दरी को अपलक निहारते हुए देखकर धनवती शर्मा गयी।,,सुरसुरन्दरी को अपने उत्संग से अलग करती हुई बोली ‘बेटी दन्त धावन करले फिर अपन साथ दुग्धपान करेंगे। सुरसुरन्दरी ने दन्तधावन किया और धनवती के साथ दुग्धपान किया। धनवती ने दुग्धपान करते हुए कहा: बेटी तू रोजाना परमात्मपूजन करती है न ?हा माँ।! सुरसुरन्दरी के मुंह में से स्वाभाविक ही ‘माँ’ शब्द निकल गया…धनवती तो ‘माँ ‘ संबोधन सुनकर हर्ष से उभर हो उठी।’ बेटी तू मुझे हमेशा माँ कहकर ही बुलाना …..। मेरा अमर भी मुझे माँ ही कहता है। सुरसुरन्दरी तो इस स्नेह मूर्ति के समक्ष मोन ही रह गयी। उसे शब्द नही मिले….बोलने के लिए। ‘हा ‘तो ,में यह कह रही थी। कि अपन दोनों साथ ही परमात्मपुजन के लिए चलेंगे। तुझे अच्छा लगेगा न !
बहुत अच्छा लगेगा माँ मुझे तो तू ही अच्छी लग गयी है….एक पल भी तुझसे दूर नही जाऊ। चल अपन स्नान वगैरह से निपट ले।
आगे अगली पोस्ट मे…