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भीतर का श्रंगार – भाग 5

चारो रानिया कहानी सुनने के लिये लालवित हो उठी।
सुरसुन्दरी ने कहानी का प्रारंभ किया।
वसंतपुर नाम का नगर था।
उस नगर में एक समृद्ध सेठ रहता था, उसका नाम था श्रीदत्त !
श्रीदत्त की पत्नी श्रीमती शीलवती एवं गुणवंती नारी थी।
श्रीदत्त की राजपुरोहित सुरदत्त के साथ गाड़ मैत्री थी। दोनो को एक दूसरे पर
सम्पूर्ण भरोसा था। एक दिन श्रीदत्त ने व्यापार के लिए परदेश जाने का विचार
किया। उसने सुरदत्त से कहा मित्र मै परदेश जा रहा हूं हालांकि बहुत जल्द ही
वापस लौट आऊँगा फिर भी मेरी अनुपस्थिति में तू मेरे घर का ख्याल रखना। श्रीमती
को किसी भी तरह की आपत्ति का शिकार ना होना पड़े इसका ध्यान तुझे रखना होगा।
सुरदत्त ने कहा
श्रीदत्त… तू बिल्कुल निश्चित रहना … बिल्कुल फिक्र मत करना। ढेर सारा धन
कमाकर वापस जल्दी आ जाना.. तेरे घर का पूरा ख्याल में करूँगा।
श्रीदत्त परदेस चला गया।
सुरदत्त रोजाना नियमित श्रीमती के पास जाने लगा। श्रीमती जो भी कार्य बताती वह
प्रशन्नता से करता। श्रीमती के पास बैठता… बाते भी करता… यो करते करते एक
दिन वह श्रीमती के रूप में मुग्ध हो उठा। उसकी चापलूसी बढ़ने लगी.. एक दिन उसने
सांकेतिक शब्दो मे श्रीमती के समक्ष प्रेम की याचना करते हुए निम्न श्लोक पढा :
।।काले प्रसुंतस्य जनार्दनस्य, मेधांधकारसु च शवँरीषु। मिथ्या न दक्ष्यामि
विशाल नेत्रे। ते प्रत्याय प्रथमाक्षरेषु।।
ओ बड़े नेत्रो वाली। मेघ के अंधकार से युक्त बारिश की रात में मै तुझे चाहता
हूँ… यह में झूठ नही कहता
प्रतीति के लिये श्लोक की चारो लाइनों मैं पहले अक्षर में मैने ‘कमेमि ते’ यह
कहा है।
श्रीमती को मन ही मन संदेह तो था ही… यह श्लोक सुनकर वह पुरोहित की इच्छा
भांप गयी… वह स्वयं विदुषी थी… उसने भी श्लोक मे ही सांकेतिक उत्तर दिया।
।।नेह लोके सुख किंचित, चछावितसयाहंसा भृशम। मितं च जिवितं नृणां, तेन धर्मे
मति करु।।

आगे अगली पोस्ट मे….

भीतर का श्रंगार – भाग 4
September 1, 2017
भीतर का श्रंगार – भाग 6
September 1, 2017

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