सुरसुन्दरी काफी आश्वस्त हो गयी थी। सारी रात उसे नींद नहीं आई थी इसलिए वह जमीन पर लेटते ही वही पर सो गयी। गहरी नींद में वह दोपहर तक सोयी ही रही।
अचानक उसके पैरों के तलवे पर किसी का मुलायम स्पर्श होने लगा तो वह झटके के साथ जग उठी ! आंखे खोलकर देखा तो पैरो के पास सरिता बैठी थी ! उसके निकट भोजन की थाली पड़ी हुई थी।
तू कब आई ?
दो घडी तो बीती ही होगी !
ओह ! मुझे जगाना तो था !
सपना टूट जाये तो ?
बिल्कुल ही गलत बात ! मुझे एक भी सपना आया ही नही था ! इतनी तो गहरी नींद आयी कि पिछले कई दिनों से मे इतनी गहरी नहीं सोयी। आज सो गयी .. इसका श्रेय तुझे…
न…न…नही ! इसका श्रेय तुम्हारे उस नवकार मंत्र को देना। अब बाते बाद में करेगे.. अभी तो भोजन कर लो।
तू भी मेरे साथ ही खाना खायेंगी न ?
इतना भोजन अपन दोनो को पूरा थोड़ी ही होगा ? मेरे खाने के लिये तो ज्यादा चाहिए ! सरिता ने भोजन की थाली पाटे पर रखी।
एक ही थाली में दोनों ने भोजन किया।
देवी ! एक बात की सफाई दे दू… मैं इस भवन की परिचारिका हु, इतना ही ! इस भवन के धंदे के साथ मेरा कोई सलूक नही है ! ऐसी सफाई इसलिए दे रही हु, कही पीछे से तुम्हारे मन मे अफ़सोस न हो कि मेने वेश्या के साथ भोजन किया। मेरे शील को कलंक लगाया। केवल पेट की खातिर इस भवन मैं नोकरी करनी पड़ती है।
सुरसुन्दरी सरिता के ऊर्जस्वी उजले चेहरे को तकती रही। उसके दिल मैं सरिता के प्रति स्नेह का रंग उभरने लगा।
सरिता खाली थाली लेकर चली गयी।
सुरसुन्दरी लीलावती के कमरे की तरफ चल दी।
आगे अगली पोस्ट मे…