अग्निशर्मा ने कुलपति को पुनः प्रणाम किये और वह विनपूर्वक आसन पर बैठा । उसे कुलपति अच्छे लगने लगे । पर्णकुटी भी मन को भा गई । तपोवन का शिष्टाचार एवं वातावरण पसंद आया । उसे तापसकुमार भी अच्छा लगा ।
‘वत्स, तू कहां से आ रहा है ?’ कुलपति ने वात्सल्यपूर्ण शब्दो मे पूछा । अग्निशर्मा ने दिन एवं दुःखी स्वर में कहा :
‘अरे महात्मन, मै शितिप्रतिष्टित नगर से आता हूं । महाराजा पूर्णचन्द्र वहां राज्य करते है । राजकुमार गुणसेन और उसके मित्र बरसों से मेरे बेढंगे शरीर पर सन्नास गुजारते है । मेरे सिर पर कांटे का मुकुट पहनाकर, गले मे जूते का हार पहनाकर, रंगबिरंगे रंगों से मेरा चेहरा रंग कर, मुझे गधे पर बिठाकर, नगर में मेरी सवारी निकालते है । मेरा घोर उपहास करते है । मुझे रस्से से बांधकर कुँए में उतारकर डुबकियां खिलाते है….। मेरे पर शिकारी कुत्ता छोड़ते है । कड़ाके की सर्दी में मेरे कपड़े उतरवाकर मेरे शरीर पर ठंडा पानी डालते है । असहन्न वेदना से में चीखता हूं…. तब वे सब ताली बजाते है, जोर जोर से हँसते है और नाचते है ! प्रभो, नरक में जैसी पीड़ा परमाधामी देव देते है…वैसी पीड़ा मुझे राजकुमार और उसके मित्र देते है । ज्यादा क्या कहूं ?’
‘यानी तूने गृहत्याग किया है ? सच है ना ?’
‘हाँ प्रभो !’
‘वत्स, गत जन्मों मे- मन वचन- काया से बंधे हुए पाप कर्म इस जन्म में उदय में आये है, इसलिए ऐसा पारिक्लेश का तू भाजन बना है…। राजकुमार ने तेरा घोर अपमान किया है, अवेहलना की है…. परन्तु गृहत्याग करके तू यहां चला आया है यह तेरा सद्
भाग्य है !
राजाओ के आपार त्रास से पीड़ित, दुःख और दारीद्रय से पराभूत, दुर्भाग्य और कलंक से चिंतित, प्रियजनों के विरह से संतप्त मनुष्यों के लिए यह तपोवन श्रेष्ठ शांति का स्थान है । इस भव में सुख और परभव में सुख ! यहां इस तपोवन में रहनेवालो को किसी प्रकार का डर नही रहता है, उसका अपमान नही होता है । ईश्वर की उपासना से और यथाशक्ति तपश्चर्या के द्वारा ये सभी वनवासी पुरुष सदगति में जाने का पुण्यकर्म बांध रहे है । सचमुच, ये धन्यवाद के पात्र है !’
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