घनघोर अंधेरी रात में चुपचाप चल निकला अग्निशर्मा, शितिप्रतिष्टित नगर के बाहर आकर, जंगल के अनजान- अपरिचित रास्ते पर लंबे लंबे डग भरता हुआ चलने लगा। वह चलता ही रहा…. रात भर चलता रहा…. दिन को भी रुके बगैर चलता रहा। डर की आशंका में घबरायी आंखों से पीछे मुड़मुड़कर देखता है और आगे बढ़ता जाता है । ‘मुझे पकड़ने के लिए अवश्य कुमार ने घुड़सवार सैनिक सवारों को चारों दिशाओं में दौड़ाये होंगे । वे सैनिक मुझे देख न ले…. तो अच्छा होगा । बड़ी मुश्किल से तो वेदना से बाहर निकला हूं…. अब यदि सैनिको की निगाहों में आ गया तो मुझे उठाकर वापस….’ भयभीत होकर चारों ओर देखता हुआ तीव्र गति से चलता है ।
रास्ते मे आनेवाले किसी भी गाँव या नगर में वह जाता नही है । दूर ही से गाँव-नगर को छोड़ देता। उसे किसी भी मनुष्य की नजरों में आना नही था…. इसलिए राजमार्ग को छोड़कर जंगल की राह चलता रहता है ।
उसके मन में कुमार के प्रति न गुस्सा है…. न बदला लेने की भावना । यह तो सोचता है : ‘परलोक में बंधु-साथी के सामान…. मुनिजन जिसे जीते है…. वैसा धर्म मै करूं ! उस धर्म के प्रभाव से अगले जन्म में मुझे सुंदर शरीर मिलेगा…. फिर कोई मेरा मज़ाक नही उड़ाएगा…. न कोई मुझे सताएगा….।’
सूर्य उगता है… ढलता है । रात के बाद रात बीतती है…. वह कहीं न तो बैठता है… न ही विश्राम लेता है….। उसका शरीर बदसूरत होते हुए भी बड़ा मजबूत है । वह एक महीने तक चलता रहा। एक मनोरम्य व आह्लादक प्रदेश मै जाकर खड़ा रहा। वहां पर बकुल वृक्ष और चंपा के पेड़ थे। अशोक, पुन्नाग और नागकेसर के वृक्ष थे । वृक्षो की घटा में सुगंधित लतामण्डप थे ।
अग्नि एक लतामण्डप मे जा कर बैठा । उसका शरीर तीव्र थकान से चूर हो गया था । उसने दूर पेड़ की छाया में सिंह सोया हुआ देखा, उसके साथ ही एक छोटा सा मृगछोना खेल रहा था ! ये
उसे बड़ा आश्चर्य हुआ । उसे सिंह का डर नही लगा । वह तो कुदरत का बिखरा हुआ सौन्दर्य देखकर आनंदित हो उठा था।
एक ओर निर्मल-स्वच्छ झरना बहता था । आकाश में खुशबूदार धुंआ सा उठा रहा था । मद्धिम मद्धिम हवा बह रही थी । अग्निशर्मा को कब नींद आ गई… उसे पता ही नहीं लगा । दो घटिका तक वह गहरी नींद में सोता रहा ।
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