‘क्या अमर ने बचपन की उस मनहूस घटना को यादो के आँचल में बांध राखी होगी ? सुन्दरी विचारने लगी
नहीं….नहीं….इसके बाद तो मै उसे कई बार मिल चुकी हूँ | उसने मुझे पयार दिया है | मेरे साथ आत्मीयता का व्यव्हार किया है | कभी उसने वह बीती बात याद नहीं किया कभी | हंसी ~मजाक में भी उसने उस बात का जीकर नहीं किया | तो फिर क्या आज यकायक ही उसे इस निर्जन व्दीप पर घटना याद आ गयी? मुझे यहाँ पर अकेली छोड़े जाते हुए उसने कुछ भी सोचा नहीं होगा ?’
‘क्या पता….शायद वह बात याद आते ही उसके दिमाग में मेरे लिए गुस्सा धधक उठा ? तब ही यह संभव है | क्योकि गुस्से में आदमी बोखला जाता है|वैसे भी क्रोध को सर्वनाशकारी कहा है |
अन्यथा उसके जैसा ज्ञानी पुरुष ऐसा नहीं कर सकता।
उसने गुरु देव से धर्मज्ञान भी पाया हुआ है , तत्वज्ञान प्राप्त किया हुआ किया है | क्या तत्वज्ञान इतना कूरताभरा आचरण कर सकता है ? और नहीं तो क्या ? उसने कुरता ही तो जताई है अपने आचरण क्र द्वारा| वह खुद ही तो कह रहा था की यह यक्ष व्दीप है….यह का यक्ष मानवभक्षी है | कोई भी यात्री या प्रवासी इस व्दीप पर रात बिताने की हिमत नहीं करता है | तो फिर वह मुझे तो यक्ष का शिकार बनने को ही छोड़ गया न इधर ?
सुर सुंदरी यक्ष की कल्पना से सिहर उठी | उसके शरीर में कपकपी फेल गयी | उसका मनोमंथन रुक गया |उसने व्दीप पर दूर दूर तक निगाह दौड़ाई ….’यक्ष दिखता तो नहीं हें न?’ उसकी आखो में भय के साये उतर आये | नहीं….नहीं….मुझे क्यों डरना चाहिए ?किसके लिए जीने का ?यक्ष भले आये और मेरा भक्षण कर जाय | बस,मेरी एक ही इच्छा है मेरा शील अखंडित रहे….!प्राणों की बाजी लगाकर भी मै शील का जतन जरुर करुगी | मै खुद ही यक्ष को कह दूंगी-
आप मुझे जिन्दा मत रखीएगा, मुझे खा जाईए, मुझे जीना की नहीं है |’
सुर सुंदरी की आखे चुने लगी | दूर दूर समुद्र में उछालती तरगो को देखकर वह सोचने लगी : मनुष्य का स्वभाव भी तो इस कदर ही चंचल है | मैंने अज्ञानतावश उस स्वभाव को स्थिर मान लिया | गलती मेरी ही तो है |अस्थिर को स्थिर मानाने की गलती की| क्षणिक को शाश्वत मानाने की भूल की |कितनी बड़ी भूल है मेरी?’
आगे अगली पोस्ट मे…