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विदा, मेरे भैया ! अलविदा, मेरी बहना! – भाग 1

रानियों के अनुभव से रत्नजटी ने और ज्यादा तीन महीने सुरसुन्दरी को अपने
पास रखा । पर वह अपने आप पर पूरा निंयन्त्रण रख रहा था। कभी भी मन विवश ना हो
उठे , इंद्रिया चंचल ना हो जाये , इसके लिए वह पूरी तरह सजग रहने लगा था ।
देखते ही देखते तीन महीने तो गुजर गये…. उसने अपनी चार रानियों को बोल दिया
:
‘देखो, दो दिन के बाद मै बहन को उसके ससुराल छोड़ आने वाला हूं…. बहन को जो
भी भेट वगैरह देना हो वह दे देना ।’
‘हमने सोचा है बहन को भेट देने का !’
क्या ‘ ?
पहली रानी मणिप्रभा ने कहा :
‘मै रूप ‘परावर्तिनी, विद्या देना चाहती हूँ ।
दूसरी रानी रत्नप्रभा ने कहा :
‘मै अदृश्यकर्णी ‘ विद्या देना चाहती हूँ ।’
तीसरी रानी विधुतप्रभा ने कहा :
‘मै परविद्याछेदीनि’ विद्या देना चाहती हूँ ।’
और मै कुंजरशतबलिनी’ विद्या देना चाहती हुँ..’
चौथी रानी रविप्रभा बोली ।
‘उत्तम…… बहुत उत्तम ! तुमने काफी बढिया भेट देने का सोचा है। ये विद्याए
बहन के लिए उपकारक सिद्ध होगी ।’ रत्नजटी ने हर्ष व्यक्त करते हुए कहा ।
‘पर ये सारी विद्याए सिखलानी तो आप ही को होगी ।’
‘मै सीखा दूँगा…… तुम निश्चिंत रहो ।’
चारो रानिया पुलकित हो उठी । वे रत्नजटी के पास से उठकर सीधी पहुँची
सुरसुन्दरी के खंड में ।सुरसुन्दरी अभी अभी अपना ध्यान पूर्ण कर के
वस्र-परिवर्तन कर रही थी । उसने रानियो का स्वागत किया। सब बैठे ।
‘बहन, तुम्हारे भैया ने आज पक्का निर्णय कर लिया है ….।’
‘क्या निर्णय ? ‘
‘तुम्हे अपने ससुराल पहुँचा देने का। अब दो दिन का ही अपना मिलना है….फिर तो
….’ मनीप्रभा के स्वर में कम्पन था ।

आगे अगली पोस्ट मे…

प्रीत न करियो कोय – भाग 6
September 27, 2017
विदा, मेरे भैया ! अलविदा, मेरी बहना! – भाग 2
September 27, 2017

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