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फिर सपनों के दीप जले – भाग 5

‘ओह … मैंने इस श्रेष्ठि का परिचय तो पूछा ही नहीं सुन्दरी सोचने लगी। अरे … इसका नाम भी नहीं पूछा। वह मुझे कितनी अविवेकी समझेगा ? हां, पर मैं भी स्वार्थी ही हूँ न ? मेरा काम बन गया ,… तो नाम पूछने जितना विवेक भी भूल गयी। अब पूछ लुंगी … और उससे कोई काम हो तो करने के लिये भी मांग लूंगी। आदमी तो सज्जन लगता है। नवकार मंत्र के प्राभव से यह सब कितना अनुकूल मिलता जा रहा है ? अशरण के लिये श्रणरूप यह महामंत्र मेरे तो प्राणों का सहारा है । सचमुच उन साध्विमाता सुव्रता ने मेरे पर कितना महद उपकार किया है ? उन्होंने मुझे चिंतामणी रत्न दिया है ।’
विचार ही विचार में वह कब सो गयी … उसका उसे ख्याल ही नहीं रहा । जब वह जगी तब दिन का तीसरा प्रहर पूरा होने आया था । वह आनन-फानन खड़ी हुई । वस्त्र बगैरह ठीक किये और दरवाजा खोला … उसे ताज्जुबी लगी । वो दिन को कितनी सो गयी थी ?’ खंड के बाहर आकर वो जहाज के डेक पर चली गयी । चौतरफ सागर फैला हुआ था … उछलती मौजें … और पानी की गर्जना ।
यक्षद्विप पर रहकर सात दिन में उसने दरिये के साथ तो दोस्ती कर ली थी । दरिये को देखने में उसे आनन्द मिलता था। वह अपलक निहारती रही दरिये के अंनत असीम फैलाव को । उसके पीछे श्रेष्ठि धनजंय कभी का आकर खड़ा हो गया था सुरसुन्दरी को पता नहीं था ।
‘क्यों सिंहलद्विप की याद सता रही है क्या ?’ श्रेष्ठि ने हंसने हुए पूछा तो सुरसुन्दरी चोंकी । झेंपते हुए उसने पीछे मुड़कर देखा । धनजंय हंस रहा था । उसने सुन्दर कपड़े पहने रखे थे । उसके कपड़ों में से खुशबु आ रही थी । ‘अभी तो बहुत दिनों की यात्रा करनी है। तब कहीं जाकर सिंहलद्विप आयेगा।’
‘ओह , पर मैं आपका नाम तो पूछना ही भूल गयी ।’
‘मुझे लोग श्रेष्ठि धनजंय के नाम से जानते है ।’
‘आपकी जन्मभूमि ?’
‘मैं अहिछत्रा नगरी का निवासी हूँ ।’
‘अच्छा , वह तो हमारी चंपा से ज्यादा दूर नहीं है ।’
‘बिल्कुल ठीक है , मैंने चंपा भी देखी है । व्यापार के सिलसिले में चंपा का दौरा किया था ।’
‘तब तो आप सिंहलद्विप भी शायद व्यापर के लिये ही जा रहे होंगे ?’
‘हां… व्यापार का बहाना तो है ही । वैसे दूर दराज के अंजान देश – परदेश को देखने का शोक भी मुझे बहुत है ।’
धनजंय की आंखे बराबर सिरसुन्दरी की गदरायी हुई देह पर फिसल रही थी । स्नान वगैरह के बाद उसका अछुता रूप और निखर गया था । अब तो उसका मन खुश था , तो शरीर पर भी ख़ुशी लालिमा बनकर उभर रही थी । सुरसुन्दरी के पारदर्शी कपड़ो में से छलकते जोबन में धनजंय का पापी मन लार टपकता हुआ झांक रहा था ।
सुरसुन्दरी को इसका तनिक भी अन्दाजा नहीं लग पाया था । दुनियादारी से अनजान भोली हिरनी सी सुरसुन्दरी बेचारी धनजंय को अपने पिता जैसा समझकर उससे खुलकर बोल रही थी , पर धनजंय । उसकी शिकारी आंखे सुरसुन्दरी के सौन्दर्य की प्यासी हुई जा रही थी ।

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