‘एक ब्राह्मण आग्रणी ने कहा : ‘हम भी पुरोहित परिवार की रक्षा के लिए कटिबद्ध हैं । जवानों को सावध कर दिये हैं । पुरोहित के घर के आगे सौ-सौ शास्त्रसज्ज युवान चौकन्ने होकर बैठे रहेंगे । खुद कुमार आये या उसके दोस्त आये…. किसी को पुरोहित के घर में प्रविष्ट नहीं होने दिया जाएगा। यदि मौका आया तो लड़ने की भी तैयारी है ।’
‘तुमने भी अच्छी सतर्कतापूर्ण व्यवस्था जमाई है । हालाँकि कुमार या उसके मित्र अब आयेंगे ही नहीं ।’ नगरश्रेष्ठि ने कहा ।
पुरोहित यज्ञदत्त बोला :
‘आप सब ने मेरे परिवार के प्रति अत्यंत सहानुभूति जताई है , पीड़ा व संत्रास से हमें मुक्त्त करने की कोशिश की है। मैं आप सब का उपकार…. कभी नहीं भुला सकता ।’
‘पुरोहितजी , देखा जाए तो यह प्रसंग तुम्हारा है । परंतु परोक्षरूप से यह प्रशन समग्र प्रजा का है। आज तुम्हारी बारी है… कल मेरी भी आ सकती है। राजा प्रजा को सुख देता है…. दुःख नहीं । राजा प्रजा की सुरक्षा करता है… प्रजा का उत्पीड़न नहीं कर सकता । इसलिए राजा पर भी अनुशासन जरूरी है। हालाँकि , महाराजा पूर्णचंद्र प्रजावत्सल राजा है। कुमार कोतुहल प्रिय होने से एवं ऐरे गैरे गलत दोस्तों की संगति में रहकर गलत रास्ते पर चढ़ गये हैं ….। महाराजा उन्हें अनुशासित कर के सही रास्ते पर ले आएंगे । वैसे तो कभी व्यक्त्ति का तीव्र पापोदय होता है तब अच्छा आदमी भी गलती कर बैठता है। औरों को अन्याय करता है। तुम तो शास्त्रों के ज्ञाता हो । तुम्हारे पुत्र को धर्म का उपदेश देकर सांत्वना देते ही होंगे ।’
‘नगरश्रेष्ठि , जब वेदना की तीव्रता से मनुष्य कराहता हो…. कुलबुलाता हो, उस समय उसे धर्म का उपदेश शान्ति नहीं दे पाता। उस समय उसकी वेदना को दूर करना या कम करना , यही एक शांति देने का सही रास्ता होता है। और , आप महाजन ने सचमुच , मेरे पुत्र की घोर असहनीय पीड़ा और व्यथा को दूर करने के लिए सक्रिय कदम उठाया है…। हमारे पर यह आपका महान ऋण है ।’
‘फिर भी , निशिंचत न होकर , जागृत रहना । जवानी का उन्माद कभी अनुशासन की जंजीरों को काट डालता है। मर्यादा की रेखाओं को मिटा देता है । राजकुमार और उसके मित्र कभी भी हमला कर के तुम्हारे बेटे को उठा ले जा सकते हैं ।’
नगरश्रेष्ठि ने सभी का उचित आदर-सत्कार कर के प्रेम से सब को बिदाई दी ।