घनी अंधेरी रात थी |
डरावना जंगल था |
सनसनाती हुई सर्द हवा के साथ खङकते पत्तों की आवाज भी वातावरण को भयानक बना रही थी |
निपट अकेली सुरसुंदरी अनजान रास्ते पर बेतहाशा दौड़ी जा रही थी | उसे अपने विनश्वर प्राणो की तनिक भी परवाह नहीं थी , वह चिंतित थी केवल अपने शीलधर्म की रक्षा के लिये | खुद की जिंदगी के प्रति वह बेपरवाह हो चुकी थी | उसकी तमाम सुख की इच्छाएँ दु:ख के दावानल मे राख हो चुकी थी | उसने दो दो बार मौत के मुँह मे जानें की कोशिश की , पर मौत उससे कतराती रही | चाहने पर भी मृत्यु उसे नहीं मिल पा रही थी | कुछ देर चलती…..कुछ देर दोङती…..सुरसुंदरी एक विकट अटवी में भटक गई , रात का दूसरा प्रहर पूरा हो चुका था | वह थक गई थी |
‘कहीं सुरक्षित जगह मिल जायें तो आराम कर लू |
वह सोच ही रही थी कि एक आवाज उभरी :
‘ कौन है ? जो भी हो…..वही खङे रहना | ‘
और जैसे जमीन में से फूट पङे हो वैसे अचानक दस बारह लुटेरों ने आकर सुरसुंदरी को घेर लिया |
सुरसुंदरी डर के मारे कांप उठी | एक लुटेरा आगे आया…..सुरसुंदरी के समीप आकर टुकुर टुकुर उसे देखने लगा | सुरसुंदरी के सौंदर्य का नशा उस पर चढ़ने लगा |
‘ दोस्तो , हूर है हूर…..यह तो ! बिल्कुल परी जैसी सुन्दरी है ! वाह ! क्या माल मिला है ? आज और तो कुछ नहीं मिला…..पर अफसोस नहीं , यह तो सबसे कीमती माल मिल गया | ‘
‘ तब तो आज रात अपन कहीं नहीं जायेंगे…..यहीं पर इस सुंदरी के साथ…..ही रात…..| ‘
‘ चुप मर…..यह परी अपने लिये नहीं अपने मालिक के लिये है | पल्लीपति को भेंट देंगे तो वो बङे खुश होंगे | ‘
‘ तो फिर ले चलो इसे पल्लीपति के पास ! ‘ लुटेरों के अगुआ ने सुरसुंदरी का हाथ पकङा | सुरसुंदरी ने झटका देकर अपना हाथ छुङा लिया | उसने कहा : मुझे छुना मत | मै तुम्हारे साथ चल रही हूँ | ‘
लुटेरे नाचते-कूदते हुए सुरसुंदरी को लेकर पल्ली की ओर चल दिये | सुरसुंदरी ने अपनी मानसिक स्वस्थता को सहेज लिया था | वह निश्चित होकर चल रही थी | जिसे मौत का भी डर न हो उसे फिर फिक्र किस बात की ? जैसे की सुरसुंदरी इन सभी आफतों की आदी हो गई हो |
आगे अगली पोस्ट मे…