पांच ऐरवत और पांच भरत में भी शाश्वत सुख देनेवाले इस मंत्र को गिना जाता है ।
हे आत्मन , अत्यन्त भयानक ऐसे भावश्त्रयो के समुदाय पर विजय प्राप्त करने वाले अरिहंतों को, कर्ममल से अत्यन्त शुद्ध हुए सिद्ध भगवंतो को, भावश्रुत के दाता उपाध्याय भगवंतो को एवं शिवसुख के साधक सभी साधु भगवंतो को नमस्कार करने के लिये निरन्तर उधत रहना । सभी इधर उधर के विकल्पों को छोड़कर इस नमस्कार महामंत्र के प्रति आदरयुक्त बनना । ‘
साध्वीजी का धीर-गंभीर वरणी-प्रवाह अस्खलित गति से बहता रहा। सुरसुन्दरी का अंतस्तल उस प्रवाह से भीगने लगा …. सुरसुन्दरी बोल उठी ।
‘गुरुमाता , कितना अदभुत वर्र्ण किया आपने । अपूर्व तत्व समझाया आपने । ओह । कितना अचिन्त्य प्रभावशाली है यह नमस्कार महामंत्र । आज मैं सचमुच धन्य हो गई । हे परम उपकारी , मुझे प्रतिज्ञा दीजिये , मैं प्रतिदिन 108 बार इस महामंत्र का जाप करुँगी ।’
साध्वीजी ने सुरसुन्दरी को प्रतिज्ञा दी ।
सुरसुन्दरी ने पुनः पुनः वंदना की । कुशलपुच्छा की । अन्य साध्वीवुन्द को वंदना की भावपूर्वक । और उत्साहित मन से अपने महल में आई।
अभी भी उसकी स्मृति में … कल्पना की दुनिया में , साध्वीजी की सौम्य फिर भी भव्य … मुखाकुत्ति तैर रही है । अभी भी उसके श्रवणपुटों में साध्वीजी की घटियों सी आवाज गूंज रही है । नवकार महामंत्र का भावस्मरण करते करते वह पंचपरमेष्टि भगवन्तों के ध्यान में डूब गई।
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