अमर मुनीन्द्र और साध्वी सुरसुन्दरी शुद्ध चित से संयम का पालन करते है, जिनाज्ञा का पालन करते है… गुरुदेव का विनय करते है । ज्ञान-ध्यान में रहते है… संयम योगों की आराधना में अप्रमत्त रहते है । समता की सरिता में निरंतर स्नान करते है…. धैर्यरूप पिता और क्षमारूप मा की छत्रछाया में रहते है । विरतिरुप जीवनसाथी के साथ परमसुख कीअनुभूति करते है ।
आत्मस्वरूप के राजमहल में रहते हुए उन मुनि को, उन साध्वीजी को सभी कमी किस बात की होगी…? संतोष के सिहासन पर वे आसीन होते है ! धर्मध्यान और शुक्लध्यान के चंवर ढूलते रहते हैं ! जिनाज्ञा का छत्र उनके सर पर शोभयमान हो रहा है ।
* काँस्यपात्र की भांति वे निःस्नेह बन चुके है !
* गगन की भांति वे निरालंबन बने है ।
* वायु की तरह वे अप्रतिबद्ध बन गये है ।
* शरदजल की तरह उनका ह्रदय शुद्ध-रूप बन गया है।
* कमल की भांति वे निर्लेप और कोमल बन गये है ।
* कछुए की भांति वे गुप्तेन्द्रीय बन चुके है ।
* भारंड पक्षी की भांति वे अप्रमत्त हो गये है ।
* केसरी सिंह की भांति दुर्धर्ष बन गये है ।
* सागर की तरह गम्भीर और सूरज से तेजस्वी बन गये हैं ।
*चंद्र की भांति शीतल और गंगा की तरह वे पवित्र बन गये है ।
नही है उन्हें किसी द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव का कोई प्रतिबन्ध !
नही है उन्हें किसी तरह का भय, हास्य, रति या अरति !
उनके लिए गाँव या गंगा जल एक से हैं ।
सुवर्ण और मिट्टी एक समान से लगते है !
मणि ओर त्रणा एक से लगते है !
जीवन और मृत्यु…. संसार और मोक्ष… उन्हें कोई भेद नही लगता है…। वे क्रोधविजेता बन गये थे, मानविजेता बन गये थे, मायाविजेता बन गये थे लोभविजेता बन गये थे ।
एक धन्य दिन रागद्वेष के बंधन तोड़ डाले…. क्षपकश्रेणी लगाई…. का आत्मभाव की सघनता बड़ी… विशुद्धि बढ़ती ही चली… घातीकर्मों का नाश हुआ । दोनों को केवलज्ञान प्रगट हो गया । अनंतज्ञान, अनंतदर्शन…. वीतरागता और अनंतवीर्य प्रगट हो गया…! !
महाराजा रिपुमर्दन और रानी रतिसुन्दरी को समाचार मिले :
‘अमरमुनि को एवं साध्वी सुरसुन्दरी को केवल ज्ञान प्रगट हुआ हैं ।’ रिपुमर्दन ने तुरंत ही धनावह श्रेष्ठि को समाचार भिजवाये । रथ जोड़े गये । राजा-रानी सेठ-सेठानी, गुणमंजरी अक्षयकुमार केवलज्ञानी के दर्शन करने के लिये और केवलज्ञान का उत्सव करनें के लिये काकंदी नगरी की ओर रवाना हुए ।
काकंदी नगरी के उद्यान में देवों ने केवलज्ञान का महोत्सव किया था । हजारों देवदेविया और हजारों स्त्री पुरुष केवलज्ञानी अमर मुनिराज की वाणी का अमृतपान कर रहे थे । राजा रिपुमर्दन वगैरह ने भी महामुनि को वंदना को और उपदेश सुनने के लिये बैठ गये ।
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