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चोर, जो था मन का मोर – भाग 6
अमरकुमार मौन रहा कुछ पल, कुछ सोचकर वह बोला : ‘दूसरे आदमी को शब्दों से ही भरोसा दिया जा सकता है महाराजा ! ह्रदय को तो बताया भी कैसे जाये ? परन्तु महाराजा, आप मेरी जिन्दगी की निजी बातो में इतनी रुचि बता रहे हो, वही मेरे लिए तो बड़ी बात है । मेरे पापों का फल तो मुझे यही…
चोर, जो था मन का मोर – भाग 5
‘अमरकुमार, तुम्हारी वह पत्नी थी कैसे यह तो बताओ जरा ?’ ‘महाराजा, मै क्या उसका बयान करूँ ? उसमे अनगिनत गुण थे ! रूप में तो वह उर्वशी थी… रंभा थी…. मै अपने मुँह क्या अपनी पत्नी की प्रशंसा करुं ? परन्तु…’ ‘तुम्हे तुम्हारी उस पत्नी की याद तो सताती होगी ना ?’ ‘पल पल याद आती है महाराजा, उसको…
चोर, जो था मन का मोर – भाग 4
अमरकुमार ने बराबर ध्यान से विमलयश के चेहरे को देखा । उसने मन ही मन निर्णय किया कि, राजा तो सचमुच सो गया है ।’ वह पुनः अपनी जगह पर बैठ गया । मन में कुछ सोचा और घी के बरतन उठाकर अपने होठों से लगाया… एक घूंट… दो घूंट पिये…. इतने में तो विमलयश एकदम खड़ा हो गया, और…
चोर, जो था मन का मोर – भाग 3
विमलयश अपने कमरे में चला गया । इधर अमरकुमार आशा के तंतुओं से बन्धा हुआ अपने कमरे में पहुँचा । कई तरह से विचार आ-आकर उसे घेरने लगे । ‘सवा सेर घी… इस राजा के पैरों के तलवे में घिसने का। क्या इतना घी पैरो में उतर जायेगा ? उसके पैर दिखने में तो कितने मृदु है… कोमल है….. और…
चोर, जो था मन का मोर – भाग 2
‘आप कहो वैसे करने के लिए मै तैयार हूँ…। ‘आज रात को मै तुम्हे सवा सेर घी दूंगा । तुम्हे मेरे पैरों के तलवे में वह घी घिसने का । सवा सेर घी मेरे पैरों में उतार देने का । बोलो, है कबूल ?’ ‘जी हाँ कबूल है !’ ‘तो अभी जाओ… दिन की पूरी नींद निकाल लेना… रात को…