आज तो भरत चक्रवर्ती याद आते है।
वह जब प्रभु आदिदेव से पुछते है-
भावि मे तिर्थंकर होने वाला हो, ऐसा कोई आत्मा वर्तमान मे विधमान है?
प्रभु जवाब देते है- हे भरत महाराजा! विधमान है । मरीचि की आत्मा इसी 24 मे अंतिम तिर्थंकर होगी। प्रभु का जवाब सुनकर के भरत महाराजा पुहुँचे मरीचि के पास, आदिदेव परमात्मा के परम श्रावक भरतजी। श्रामव्य भ्रष्ट परिव्राजक को वंदन करोगे क्या? अरे उन्होंने वंदन ही नही तीन प्रदिक्षना भी करी। कारण के वर्तमान का त्रिगडी भी भविष्य का त्रेलोक्य नाथ है। वर्तमान के अशुद्ध पर्याय के दुसरी ओर दुर सुंदर रहे हुए जिनत्व पर्याय को उन्होंने सामने रखा था। इसिलिये उन्होंने प्रदिक्षणा पूर्वक वंदन करे। प्रभु मुझे भी भरत की दृष्टि का दान करो ने। मै भी मानवयात्रा से आपके समवसरन मे आ जाऊ। और मै आपसे सवाल पूछू। प्रभु! भविष्य मे सिद्ध होने वाला हो ऐसी कोई आत्मा वर्तमान मे विधमान है? मेने तेरी तरफ से उत्तर सुना सभी ही
तेरे सामने जो भी जीव आते है प्रायः तो सभी ही भावि सिद्ध भगवंत होने वाले है।
ये सर्वज्ञ वाणी सुनकर मै नाचने लगा।
मेरे मन मे रोमांच खडा हो गया ।
आखों मे से अश्रुधारा बहने लगी ।
भरतजी की तरह मन मे भाव आया,
भावि सिद्ध भगवंत को तीन प्रदिक्षना दे कर वंदन करू।
और मै वंदन करने चला पर तीन दण्ड सामने आते ही
मन दण्ड, वचन दण्ड, काय दण्ड जीव ने धारण करा था।
मेने भी धारन कर रखा था इसी कारण
मै वंदन करने गाया और भड़क गया।
वंदामि के बदले निंदामि पद का उच्चारण करते वहा से भाग गया।
प्रभु मै श्रावक भी हूँ क्या?
हे करूणासागर! मुझे भरत महाराजा जैसी दृष्टि की भेट दो ।।